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पंचसंग्रह : ६
लाता है और उस समय पुण्य प्रकृतियों के रस में हानि और पाप प्रकृतियों के रस में वृद्धि होती जाती है । किन्तु वही जीव पहले गुणस्थान से चढ़ता जाता है तब कषायों का बल घटते जाने से वह विशुद्ध परिणामी कहलाता है और उस समय पाप प्रकृतियों के रस में हानि और पुण्य प्रकृतियों के रस में वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार हीयमान और प्रवर्धमान अध्यवसायों की संख्या समान है । जैसे ऊपर की मंजिल से उतरते जितनी सीढ़ियां होती हैं, उतनी ही चढ़ते हुए भी होती हैं । इसी प्रकार यहाँ भी संक्लिष्ट परिणामी जीव
जितने अशुभ अध्यवसाय होते हैं, उतने ही विशुद्ध परिणामी जीव के शुभ अध्यवसाय होते हैं और पूर्व में जो यह संकेत किया गया था कि शुभ अध्यवसाय कुछ अधिक होते हैं तो उसका कारण यह है कि क्षपक श्रेणि के अध्यवसाय अधिक हैं । क्योंकि जिन अध्यवसायों में वर्तमान क्षपक आत्मा क्षपक श्रेणि पर आरोहण करती है, वहाँ से गिरती नहीं है । इसी कारण अशुभ अध्यवसायों की अपेक्षा शुभ अध्यवसायों की संख्या अधिक बताई है ।
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प्रश्न - एक ही परिणाम शुभ और अशुभ दोनों प्रकार होना कैसे सम्भव है ?
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उत्तर - एक ही परिणाम शुभ और अशुभ दोनों प्रकार हो सकता है । क्योकि शुभाशुभत्व सापेक्ष है । जब जीव गिरता हो तब उस पतनोन्मुखी जीव के वे समस्त परिणाम अशुभ कहलाते हैं और आरोहण करता हो तब वही सब शुभ कहलाते हैं । जैसे कि पर्वत पर आरोहण और अवरोहण करते हुए मनुष्य के अध्यवसाय में तारतम्य स्पष्टतया ज्ञात होता है । पर्वत से उतरते मनुष्य और पर्वत पर चढ़ते मनुष्य यदि एक ही सोपान पर खड़े हों तो भी चढ़ने वाले के अध्यवसाय प्रवर्धमान और उतरने वाले के हीयमान होते हैं, इसी प्रकार यहाँ भी प्रवर्धमान और हीयमान अध्यवसायों के विषय में भी जानना चाहिये ।
यह अध्यवसाय प्ररूपणा का आशय जाना चाहिये । अब अविभाग प्ररूपणा का विचार करते हैं ।