Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३
१११
दर्शनावरण कर्म को जो मूल भाग प्राप्त होता है, उसके उत्कृष्ट रस वाले अनन्तवें भाग के छह भाग होकर दर्शनावरण कर्म की सर्वघातिनी छह प्रकृतियों-पांच निद्राओं और केवलदर्शनावरण में विभाजित हो जाता है और शेष रहे दल के तीन भाग होकर देशघातिनी चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनावरण इन तीन प्रकृतियों में बंट जाता है।
इसी प्रकार से मोहनीय कर्म की सर्वघातिनी एवं देशघातिनी प्रकृतियों के लिये दल विभाग का क्रम जानना चाहिये। जिसका विशदता के साथ वर्णन इस प्रकार है
उक्कोसरसस्सद्ध मिच्छे अद्ध तु इयरघाईणं। संजलणनोकसाया सेसं अद्धद्धयं लेति ॥४३॥ शब्दार्थ-उक्कोसरसस्सद्धं-उत्कृष्ट रस वाले दलिक का अर्द्ध भाग, मिच्छे-मिथ्यात्व को, अद्धं-अर्ध भाग, तु-और, इयरघाईणं-इतर घाति प्रकृतियों को, संजलणनोकसाया-संज्वलन और नोकषायों को, सेसं-शेष, अद्धद्धयं-अर्ध भाग, लेति-प्राप्त होता है ।
गाथार्थ-उत्कृष्ट रस वाले दलिक का अर्ध भाग मिथ्यात्व को और अर्ध इतर घाति प्रकृतियों को प्राप्त होता है तथा शेष रहे अर्ध भाग का अर्ध-अर्ध भाग संज्वलन तथा नोकषायों को प्राप्त होता है।
विशेषार्थ-रस की अपेक्षा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में दल विभाग के क्रम को गाथा में स्पष्ट किया गया है।
मोहनीय कर्म के दो प्रकार हैं--दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इनमें से दर्शनमोहनीय की बंध की अपेक्षा एक मिथ्यात्व प्रकृति है जो सर्वघातिनी है तथा चारित्रमोहनीय के कषाय वेदनीय नोकषाय वेदनीय ये दो भेद हैं । अनन्तानुबंधि क्रोध से संज्वलन लोभ पर्यन्त कषाय वेदनीय के सोलह भेद तथा हास्यादि नपुसकवेद