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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४१
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अल्प है, उससे मनुष्यानुपूर्वी का विशेषाधिक है और उससे तिर्यंचानुपूर्वी का विशेषाधिक है।
त्रसनामकर्म का प्रदेशाग्र अल्प है उसकी अपेक्षा स्थावरनाम का विशेषाधिक है । इसी प्रकार बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त और प्रत्येक-साधारण के प्रदेश प्रमाण के सम्बन्ध में जानना चाहिये । __ शेष नामकर्म की प्रकृतियों का अल्पबहुत्व नहीं है । समान भाग में ही प्रदेशों का उनमें विभाग होता है। ___इसी प्रकार साता-असाता वेदनीय और उच्च गोत्र-नीच गोत्र का भी अल्पबहुत्व नहीं है।
अन्तरायकर्म में उत्कृष्ट पद के अनुरूप जघन्य पद में भी अल्पबहुत्व जानना चाहिये।
इस प्रकार से उत्कृष्ट योग एवं जघन्य योग के सद्भाव में क्रमशः यथायोग्य अधिक और अल्प वर्गणाओं का ग्रहण होने से उस कर्म रूप में उतनी-उतनी वर्गणायें परिणमित होती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीव उत्कृष्ट प्रदेश ग्रहण करता है तथा मूल अथवा उत्तर कर्म प्रकृतियां अल्प बांधे तब शेष अबध्यमान प्रकृतियों के भाग के दलिक बध्यमान प्रकृतियों को प्राप्त होते हैं और उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम काल में विवक्षित बध्यमान प्रकृति में अन्य प्रकृतियों के प्रभूत कर्म पुद्गल संक्रमित होते हैं । इस प्रकार के कारणों के रहने पर उत्कृष्ट प्रदेशाग्र और विपरीत कारणों के सद्भाव में जघन्य प्रदेशाग्र होता है। मध्यम योग से ग्रहण की गई वर्गणाओं का उसके अनुसार भाग प्राप्ति समझना चाहिये।
अब पूर्व गाथा में जो मोहनीय और आवरगद्विक में रसभेद से दल विभाग कहने का संकेत किया था तदनुसार उनके दल विभाग का कथन करने के लिये आचार्य गाथा सूत्र कहते हैं।