Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
इस प्रकार के षट्स्थानक कितने होते हैं ? तो इसके उत्तर में आचार्य सूत्र और कंडक का लक्षण कहते हैं---- __अस्संखलोग तुल्ला अणंतगुणरसजुया य इय ठाणा।
कंडंति एत्थ भन्नइ अंगुलभागो असंखेज्जो ॥३५॥ शब्दार्थ-अस्संखलोग तुल्ला-असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, अणंतगुणरसजुया-अनन्त गुण स्नेह से युक्त, य-और, इय-ये, ठाणा-शरीरस्थान, कंडंति-कंडक यह, एत्थ--यहाँ, भन्नइ-कहते हैं, अंगुलभागो असंखेज्जो-अंगुल के असंख्यातवें भाग। __गाथार्थ-इस प्रकार अनन्तगुण स्नेह से युक्त असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण शरीरस्थान होते हैं। यहाँ कंडक यह अंगुल
के असंख्यातवें भाग (गत प्रदेशों) की संख्या को कहते हैं । .. विशेषार्थ-पूर्व में बताये गये छह प्रकार की वृद्धि वाले शरीरस्थानों के प्रमाण का यहाँ निर्देश किया है कि अनन्तगुण स्नेह से युक्त वे स्थान कुल मिलाकर 'अस्संखलोगतुल्ला' -असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं और इसी प्रकार से असंख्येय गुण स्नेहादि से युक्त भी प्रत्येक स्थान असंख्यातलोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। __इस प्रकार से समस्त शरीरस्थानों का प्रमाण बतलाने के बाद अब पूर्व में आगत कंडक शब्द का लक्षण कहते हैं कि स्थान के विचार में अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उस संख्या की कंडक यह संज्ञा है । अर्थात् अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश हैं, उनकी कुल मिलाकर जितनी संख्या होती है उतनी संख्या की शास्त्रीय भाषा में कंडक यह संज्ञा है।
अब उन-उन बंधनयोग्य शरीर के परमाणुओं के अल्पबहुत्व का कथन करते हैं
१. औदारिक-औदारिक बंधन योग्य पुद्गल परमाणु अल्प हैं। उससे औदारिक-तैजस बंधनयोग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं । उससे