Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४०
इस प्रकार सामान्य से मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के विभाग होने का कारण बतलाने के पश्चात् अब प्रकृतिबंध आदि का विस्तार से स्वरूप-निर्देश करते हैं। प्रकृतिबंधादि के लक्षण
ठिइबंधु दलस्स ठिई पएसबंधो पएसगहणं जं ।
ताण रसो अणुभागो तस्समुदाओ पगइबंधो ॥४०॥ शब्दार्थ-ठिइबंधु-स्थिति बंध, दलस्स-दलिक की, ठिई-स्थिति, पएसबंधो-प्रदेश बंध, पएसगहणं-प्रदेशों का ग्रहण, जं–जो, ताण-उनका, रसो-रस, विपाक शक्ति, अणुभागो-अनुभाग बंध, तस्समुदाओ-उनका समुदाय, पगइबंधो---प्रकृतिबंध ।
गाथार्थ-दलिक की स्थिति को स्थितिबंध और प्रदेशों का जो ग्रहण उसे प्रदेशबंध, एवं उनके रस को अनुभागबंध तथा इनके समुदाय को प्रकृतिबंध कहते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में स्थिति, प्रदेश, अनुभाग और प्रकृति बंध का स्वरूप बतलाया है । लेकिन कर्मवर्गणायें पौद्गलिक हैं। अतः उनके प्रदेश होते हैं । इसलिये सुगमता से बोध कराने के लिये प्रदेशबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रकृतिबंध के क्रम से विवेचना करते
हैं
____ 'पएसबंधो पएसगहणं' अर्थात् जीव जो अपने अध्यवसायविशेष से प्रति समय अनन्तानन्त कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करता है तथा ग्रहण करके पानी और दूध अथवा अग्नि और लोहपिंड के समान अपने साथ एकमेक रूप में सम्बद्ध-संयुक्त कर लेता है उसे प्रदेशबंध कहते हैं। ___ उनके काल का निश्चय अर्थात् अमुक कर्म रूप में परिणमित हुई वर्गणाओं का फल अमुक काल पर्यन्त अनुभव किया जायेगा, ऐसा जो निर्णय उसे स्थितिबंध कहते हैं-'ठिइबंधु दलस्सठिई। कर्मरूप