Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४१
१०३ दर्शनावरण और अन्तराय का भाग बड़ा है। क्योंकि इन तीनों की उत्कृष्ट स्थिति तीस-तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है और परस्पर में तीनों की समान स्थिति होने से समान भाग है। उनकी अपेक्षा सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति होने से मोहनीय का भाग अधिक है, लेकिन वेदनीय कर्म का भाग मोहनीय की अपेक्षा भी अधिक है। इसका कारण यह है कि ज्ञानावरणादि घातित्रिक के बराबर वेदनीय की भी तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम की स्थिति है फिर भी मोहनीय कर्म के रूप में जितना दल परिणमित होता है, उसकी अपेक्षा भी अधिक दलिक यदि वेदनीय कर्म रूप में परिणमित न हो तो वह अपने फल-सुख और दुःख का स्पष्ट अनुभव नहीं करा सकता है। वह अत्यन्त स्पष्ट सूख और दुःख का अनुभव इस कारण कराता है कि उसके भाग में अधिक दलिक आते हैं क्योंकि वेदनीय अघाती कर्म है ।
इस प्रकार सामान्य से दल-विभाग का संकेत करने के बाद अब अल्पबहुत्व बतलाते हैं। क्योंकि उत्कृष्ट योग होने पर जीव अधिक से अधिक वर्गणायें और जघन्य योग होने पर कम से कम वर्गणायें ग्रहण करता है । इसलिये किस प्रकृति रूप में किस प्रमाण में वर्गणायें परिणमित होती हैं, इसको स्पष्ट करते हैं । उत्कृष्ट पद में प्रदेशों का अल्पबहुत्व
ज्ञानावरण-केवलज्ञानावरण का प्रदेश प्रमाण अल्प है, उससे मनपर्यायज्ञानावरण का अनन्तगुण, उससे अवविज्ञानावरण का विशेषाधिक, उससे श्र तज्ञानावरण का विशेषाधिक और उससे मति-ज्ञानावरण का विशेषाधिक है। ___दर्शनावरण–प्रचला का प्रदेश प्रमाण सबसे अल्प है, उससे निद्रा का विशेषाधिक, उससे प्रचला-प्रचला का विशेषाधिक, उससे निद्रानिद्रा का विशेषाधिक, उससे स्त्यानद्धि का विशेषाधिक, उससे केवलदर्शनावरण का विशेषाधिक, उससे अवधिदर्शनावरण का अनन्तगुण उससे अचक्षुदर्शनावरण का विशेषाधिक, उससे चक्षुदर्शनावरण का विशेषाधिक दलिक है।