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पंचसंग्रह : ६ रसभेएणं-रस के भेद से, इत्तो-अब, मोहावरणाण-मोहनीय आवरणद्विक के, निसुणेह-सुनो। __ गाथार्थ—पहले मूल और उत्तर प्रकृतियों के दलिकों का भाग रूप संभव प्रमाण कहा है। अब रस के भेद से मोहनीय और आवरणद्विक के भाग के प्रमाण को सुनो।
विशेषार्थ-यद्यपि पहले बंधविधि अधिकार में 'कमसो वुडिईणं' (गाथा ७८) एवं उसकी अनन्तरवर्ती अन्य गाथाओं में मूल और उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी कर्मवर्गणाओं के भाग का प्रमाण कहा जा चुका है कि स्थितिविशेष से किस कर्म के रूप में कितनी वर्गणायें परिणमित होती हैं । लेकिन यहाँ उसी प्रकार से दलिक विभाग का पुनः कथन न करके घाति मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और नाम कर्मों में घाति एवं अघाति रूप रस की अपेक्षा दल विभाग का प्रमाण बतलाते हैं। अर्थात् कर्म रूप में परिणमित हुई वर्गणाओं में से सर्वघाति और देशघाति के रूप में कितनी-कितनी वर्गणायें परिणमित होती हैं, इसको स्पष्ट करते हैं । यह कथन प्रदेशों के सहकार से किया जा सकता है । अतएव उन्हीं का आलंबन लेकर विशेषता से करते हैं। वह इस प्रकार___ कर्मों को उन-उनकी स्थिति के प्रमाण में भाग प्राप्त होता है। अर्थात् किसी भी कर्म रूप में अमुक प्रमाण में वर्गणाओं का जो परिणमन होता है, वह उसकी स्थिति के प्रमाण में होता है। जिसकी स्थिति अधिक होती है, उस रूप में अधिक वर्गणायें और जिसकी स्थिति अल्प होती है उस रूप में अल्प वर्गणायें परिणमित होती हैं उसके भाग में थोड़ी वर्गणायें आती हैं। जैसे कि दूसरे कर्मों से अल्प स्थिति होने से आयु का भाग सबसे अल्प है। क्योंकि उसकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण है। बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति होने से आयु कर्म की अपेक्षा नाम
और गोत्र कर्म का भाग अधिक है, किन्तु स्वस्थान में दोनों की स्थिति समान होने से परस्पर तुल्य है। उनकी अपेक्षा ज्ञानावरण,