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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४१
१०१ और आवारक शक्ति बिना का भी कोई रस है । अतएव वहाँ भी उपर्युक्त प्रकृतिबंध का लक्षण घटित कर लेना चाहिये। ___ इस विषय में अन्य कतिपय आचार्यों का मंतव्य इस प्रकार हैकर्मवर्गणाओं में ज्ञानाच्छादक आदि पृथक्-पृथक जो स्वभाव उत्पन्न होते हैं, वे ही प्रकृतिबंध हैं । पूर्व में सामान्य रूप में कार्मण वर्गणा थी। बंध समय में उसके अन्दर परिणामानुसार भिन्न-भिन्न स्वभाव हो जाते हैं और उत्पन्न हुए भिन-भिन स्वभावों को ही प्रकृतिबंध कहा जाता है, किन्तु तीनों के समुदाय को नहीं। इस प्रकार यह प्रकृतिबंध का स्वतन्त्र लक्षण है जो प्रत्येक स्थान में होने वाले कर्मबंध में घटित हो सकता है। इसका कारण यह है कि मात्र योग के निमित्त से बंधने वाले कर्म में भी स्वभाव और प्रदेश तो होते ही हैं। इस प्रकार उनके अभिप्राय से अध्यवसाय के अनुरूप उत्पन्न हुए भिन्न-भिन्न स्वभावों को प्रकृतिबंध, काल के निर्णय को स्थितिबंध, आवारक शक्ति को रसबंध और कर्म पुद्गलों का ही आत्मा के साथ जो सम्बन्ध उसे प्रदेशबंध कहा जाता है।
इस प्रकार से प्रकृतिबंध आदि चारों का स्वरूप जानना चाहिये। प्रकृतियों के लक्षण आदि विस्तार से पूर्व में कहे जा चुके हैं अतएव प्रकृतिबंध के रूप में अन्य कुछ कहना शेष नहीं रहने से अब प्रदेशबंध का निरूपण करते हैं।
प्रदेशबंध का लक्षण पूर्व में बताया जा चुका है कि 'पएसबंधो पएसगहणं जं ।' अतएव अब मूल और उत्तर प्रकृतियों में जिस रीति से दलिक-विभाग होता है, उसका कथन करते हैं । प्रकृतियों में दलिक-विभाग विधि
मूलुत्तरपगईणं पुत्वं दलभागसंभवो वुत्तो। रसभेएणं इत्तो मोहावरणाण निसुणेह ॥४१॥ शब्दार्थ-मूलुत्तरपगईणं-मूल और उत्तर प्रकृतियों का, पुन्वं-पहले, दलभागसंभवो-दलिकों का भाग रूप संभव प्रमाण, वुत्तो–कहा है,