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पंचसंग्रह : ६
____ शब्दार्थ-अणुभागविसेसाओ-अनुभाग की विशेषता से, मूलुत्तरपगइभेयकरणं-मूल और उत्तर प्रकृतियों का भेद होता है, तु-और, तुल्लस्सावि दलस्सा--दलिकों के तुल्य होने पर भी, पगइओ-प्रकृतियां, गोणनामाओ—गुणनिष्पन्न नाम वाली।
गाथार्थ-कर्म रूप में दलिकों के समान होने पर भी अनुभागस्वभाव की विशेषता से मूल और उत्तर प्रकृतियों का भेद होता है । ये प्रत्येक प्रकृतियां गुणनिष्पन्न नाम वाली हैं।
विशेषार्थ-आयुष्मन ! यह ठीक है कि कार्मण वर्गणायें समान हैं और संसारी जीव यावज्जीवन अध्यवसाय-विशेष से समय-समय उन अनन्त कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है, लेकिन ग्रहण समय में ही जीव के परिणामानुसार उन कार्मण-वर्गणा के दलिकों में ज्ञान गुण का आवरण करना, दर्शन गूण का आवरण करना इत्यादि रूप भिन्न-भिन्न स्वभावों को उत्पन्न करता है और स्वभावभेद से वस्तु का भेद-भिन्नता, पार्थक्य सुप्रतीत ही है, यथा घट और पट । इसी प्रकार कर्मदलिक कर्मस्वरूप से समान होने पर भी ज्ञानावरणत्वादि भिन्न-भिन्न स्वभाव के भेद से मूल और उत्तर प्रकृतियों के भी भिन्न-भिन्न प्रकार हो जाते हैं ।
समय-समय ग्रहण की गई कार्मण वर्गणाओं में जीव अध्यवसायानुसार भिन्न-भिन्न अनुभाग-स्वभाव को स्वभाव-सामर्थ्य से उत्पन्न करने वाला होने से कर्म के मूल भेद आठ और उत्तर भेद एक सौ अट्ठावन होते हैं । ये सभी मूल और उत्तर भेद-प्रकृतियां गुणनिष्पन्न-अन्वर्थसार्थक नाम वाली हैं । जैसे कि जिसके द्वारा ज्ञान आच्छादित हो वह ज्ञानावरण, जिसके द्वारा सुख-दुःख का अनुभव हो वह वेदनीय, जिसके द्वारा मतिज्ञान आवृत हो वह मतिज्ञानावरण, जिसके द्वारा सुख का अनुभव हो वह सातावेदनीय इत्यादि । इस प्रकार सभी मूल और उत्तर प्रकृतियां सार्थक नाम वाली हैं। उन सभी प्रकृतियों के नामों आदि का निरूपण बंधव्य अधिकार में किया जा चुका है।