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________________ १८ पंचसंग्रह : ६ ____ शब्दार्थ-अणुभागविसेसाओ-अनुभाग की विशेषता से, मूलुत्तरपगइभेयकरणं-मूल और उत्तर प्रकृतियों का भेद होता है, तु-और, तुल्लस्सावि दलस्सा--दलिकों के तुल्य होने पर भी, पगइओ-प्रकृतियां, गोणनामाओ—गुणनिष्पन्न नाम वाली। गाथार्थ-कर्म रूप में दलिकों के समान होने पर भी अनुभागस्वभाव की विशेषता से मूल और उत्तर प्रकृतियों का भेद होता है । ये प्रत्येक प्रकृतियां गुणनिष्पन्न नाम वाली हैं। विशेषार्थ-आयुष्मन ! यह ठीक है कि कार्मण वर्गणायें समान हैं और संसारी जीव यावज्जीवन अध्यवसाय-विशेष से समय-समय उन अनन्त कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है, लेकिन ग्रहण समय में ही जीव के परिणामानुसार उन कार्मण-वर्गणा के दलिकों में ज्ञान गुण का आवरण करना, दर्शन गूण का आवरण करना इत्यादि रूप भिन्न-भिन्न स्वभावों को उत्पन्न करता है और स्वभावभेद से वस्तु का भेद-भिन्नता, पार्थक्य सुप्रतीत ही है, यथा घट और पट । इसी प्रकार कर्मदलिक कर्मस्वरूप से समान होने पर भी ज्ञानावरणत्वादि भिन्न-भिन्न स्वभाव के भेद से मूल और उत्तर प्रकृतियों के भी भिन्न-भिन्न प्रकार हो जाते हैं । समय-समय ग्रहण की गई कार्मण वर्गणाओं में जीव अध्यवसायानुसार भिन्न-भिन्न अनुभाग-स्वभाव को स्वभाव-सामर्थ्य से उत्पन्न करने वाला होने से कर्म के मूल भेद आठ और उत्तर भेद एक सौ अट्ठावन होते हैं । ये सभी मूल और उत्तर भेद-प्रकृतियां गुणनिष्पन्न-अन्वर्थसार्थक नाम वाली हैं । जैसे कि जिसके द्वारा ज्ञान आच्छादित हो वह ज्ञानावरण, जिसके द्वारा सुख-दुःख का अनुभव हो वह वेदनीय, जिसके द्वारा मतिज्ञान आवृत हो वह मतिज्ञानावरण, जिसके द्वारा सुख का अनुभव हो वह सातावेदनीय इत्यादि । इस प्रकार सभी मूल और उत्तर प्रकृतियां सार्थक नाम वाली हैं। उन सभी प्रकृतियों के नामों आदि का निरूपण बंधव्य अधिकार में किया जा चुका है।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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