Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२,३३,३४
८७ पूर्व-पूर्व स्थान की अपेक्षा अनन्तभागाधिक स्पर्धक वाले होते हैं। तत्पश्चात् जो शरीरस्थान होता है, वह पूर्व के शरीरस्थान से असंख्यातभागाधिक स्पर्धक वाला होता है। उसके बाद पुनः एक कंडक प्रमाण स्थान अनन्तभागाधिक स्पर्धक वाले होते हैं। इस प्रकार कंडक प्रमाण अनन्त-भागाधिक स्पर्धकों से व्यवहित असंख्यातभागाधिक स्पर्धक वाले शरीरस्थान भी एक कंडक प्रमाण होते हैं । अर्थात् पहले असंख्यातभागवृद्ध और दूसरे असंख्यातभागवृद्ध शरीरस्थान के बीच में अनन्तभागवृद्ध स्पर्धक वाले एक कंडक जितने स्थान होते हैं। इसी प्रकार दूसरे और तीसरे के बीच में, तीसरे और चौथे के मध्य में अनन्तभागवृद्ध स्पर्धकों का कंडक होता है । इस रीति से असंख्यातभागवृद्ध स्पर्धकों का एक कंडक पूर्ण हो जाता है।
तत्पश्चात् अन्तिम असंख्यातभागवृद्ध शरीरस्थान से एक कंडक जितने स्थान अनन्त भागाधिक स्पर्धक वाले होते हैं, और उसके बाद जो शरीरस्थान प्राप्त होता है, उसमें पूर्व स्थान की अपेक्षा संख्यातवें भाग अधिक स्पर्धक होते हैं अर्थात् असंख्यातभागवृद्ध स्पर्धक का अन्तिम स्थान होने के पश्चात् एक कंडक जितने स्थान अनन्तभागवृद्ध स्पर्धक वाले होते हैं, और उसके बाद का संख्यात भागाधिक स्पर्धक वाला पहला एक शरीरस्थान होता है। इसके पश्चात् प्रारम्भ से लेकर जितने स्थान जिस क्रम से पूर्व में कहे गये हैं उतने स्थान उसी क्रम से कहने के बाद जो शरीरस्थान होता है, वह पूर्व स्थान की अपेक्षा संख्यातभागाधिक स्पर्धक वाला होता है-'संखेज्जभाग वुड पुण अन्नं उट्ठए ठाणं'।
इसके अनन्तर पहले और दूसरे संख्यातभागाधिक स्थान के बीच में जिस क्रम से और जितने स्थान कहे हैं उसी क्रम से और उतने कहकर फिर तीसरा संख्यातभागाधिक स्पर्धक वाला स्थान होता है। इस प्रकार संख्यातभागाधिक शरीरस्थान भी एक कंडक जितने होते हैं।