Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ स्नेहाणु होते हैं । जैसे कि पाँचवें, दसवें, बीसवें, हजारवें, या लाखवें स्पर्धक की पहली वर्गणा में पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा के स्नेहाणुओं से पांचगुने, दसगुने, बीसगुने, हजारगुने या लाखगुने स्नेहाणु होते हैं। ___अब इसी बात को विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैं कि जिस संख्या वाले स्पर्धक की पहली वर्गणा के स्नेहाणुओं की संख्या ज्ञात करने की जिज्ञासा हो तो उस संख्या के साथ पहले स्पर्धक की प्रथम वर्गणा में रहे हए स्नेहाविभाग का गुणा करने पर जो प्रमाण आये उतने स्नेहाणु विवक्षित स्पर्धक की पहली वर्गणा में होते हैं । जैसे कि लाखवें स्पर्धक की पहली वर्गणा के स्नेहाणुओं को जानने की इच्छा हो तो लाख की संख्या के साथ पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा में के स्नेहाणुओं का गुणा करने पर जितने स्नेहाणु आयें उतने स्नेहाणु लाखवें स्पर्धक की पहली वर्गणा में होते हैं । अर्थात् पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा के स्नेहाणुओं से लाख गुने स्नेहाणु होते हैं । तत्पश्चात् उस पहली वर्गणा से एक-एक स्नेहाविभाग से अधिक स्पर्धक की समाप्ति पर्यन्त अनन्त वर्गणायें होती हैं।
इस प्रकार से स्पर्धक प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये। अब अन्तर प्ररूपणा का विचार करते हैं कि पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा में दुगुने, तीसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा में तिगुने इत्यादि कथन के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि सभी स्पर्धकों में अन्तर तुल्य हैं । यानि पहले स्पर्धक और दूसरे स्पर्धक के बीच में जितने स्नेहाणुओं का अन्तर है, उतना ही अन्तर दूसरे और तीसरे स्पर्धक के मध्य में है, उतना ही तीसरे और चौथे स्पर्धक के बीच में है। इस प्रकार प्रत्येक स्पर्धक में जानना चाहिये। ___ अब इसी कथन का असत्कल्पना से स्पष्टीकरण करते हैं कि यद्यपि पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा में अनन्त स्नेहाणु होते हैं तथापि उनकी संख्या दस मान ली जाये यानि पहली वर्गणा में दस, दूसरी वर्गणा