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पंचसंग्रह : ६
में ग्यारह, तीसरी वर्गणा में बारह और चौथी वर्गणा में तेरह और इन चार वर्गणाओं का समूह पहला स्पर्धक हुआ । यहाँ से आगे एकोत्तर वृद्धि वाले स्नेहाविभाग नहीं होते हैं, किन्तु सर्व जीव राशि से अनन्तगुणाधिक स्नेहाणु होते हैं, उनकी असत्कल्पना से संख्या बीस मान ली जाए । अतएव वे बीस स्नेहाणु दूसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा में हुए। वे बीस स्नेहाणु पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा की अपेक्षा दुगुने हुए। दूसरी वर्गणा में इक्कीस, तीसरी वर्गणा में बाईस और चौथी वर्गणा में तेईस । इन चार वर्गणाओं का समुदाय दूसरा स्पर्धक है । इसके पश्चात् एकोत्तर वृद्धि में वृद्धिंगत स्नेहाविभाग नहीं होते हैं परन्तु सर्वजीवों से अनन्तगुणाधिक स्नेहाविभाग होते हैं। उनको असत्कल्पना से तीस मान लिया जाये । ये तीस स्नेहाविभाग तीसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा में होते हैं । ये तीस स्नेहाणु पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा के दस स्नेहाणुओं की अपेक्षा तिगुने हुए। इसी प्रकार प्रत्येक स्पर्धक की पहली वर्गणा के लिये समझना चाहिये । पहले स्पर्धक और दूसरे स्पर्धक के बीच में चौदह से उन्नीस इस प्रकार छह स्नेहाणुओं का अन्तर है । इसी प्रकार चौबीस से उनतीस तक छह स्नेहाणुओं का अन्तर दूसरे और तीसरे स्पर्धक के बीच में है । इस तरह छह-छह स्नेहाणु रूप में यह अन्तर समान हैं । इसी प्रकार प्रत्येक स्पर्धक में अन्तर समान समझना चाहिये । यहाँ सर्वजीवों से अनन्तगुण संख्या के स्थान में छह की कल्पना की है ।
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इस प्रकार से स्पर्धक और अन्तर प्ररूपणा का विवेचन करने के पश्चात् उनका उपसंहार करते हुए यह बताते हैं कि कुल मिलकर स्पर्धक और अन्तर कितने होते हैं ।
स्पर्धक और अंतरों का संख्याप्रमाण
अभवानंतगुणाई फड्डाई अंतरा उ रूवूणा । दोष्णंतर वुढिओ परंपरा होंति सव्वाओ ॥३०॥ शब्दार्थ - अभवानंतगुणाई - अभव्यों से अनन्त गुणे, फड्डाई-स्पर्धक,