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बधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३०
अंतरा-अंतर, उ--और, रूवूणा-रूप (एक) न्यून, दोण्णंतर वुढिओअनन्तर दो वृद्धियां, परंपरा-परंपरा से, होंति--होती हैं, सव्वाओ-सभी ।
गाथार्थ-स्पर्धक अभव्यों से अनन्त गुणे और अंतर रूपोन (एक न्यून) होते हैं । अनन्तर दो वृद्धि और परंपरा से सभी वृद्धियां होती हैं। विशेषार्थ- स्पर्धक का कुल प्रमाण कितना है ? इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि 'अभवाणंतगुणाई फड्डाई' अर्थात् अभव्य से अनन्त गुणे एवं उपलक्षण से सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक होते हैं तथा अंतर कितने होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया कि 'अंतरा रूवूणा' यानि अन्तर स्पर्धक की अपेक्षा रूप न्यून—एक कम होते हैं, जैसे कि चार के अंतर तीन होते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये तथा वर्गणाओं में आनन्तर्य- पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर की अपेक्षा दो वृद्धि होती हैं- 'दोण्णंतर वुड्ढिओ' । उनके नाम इस प्रकार हैं
१. एक-एक अविभाग वृद्धि और २ अनन्तानन्त अविभाग वृद्धि । इनमें से एक-एक अविभाग की वृद्धि स्पर्धक में रही हुई वर्गणाओं में उत्तरोत्तर और अनन्तानन्त अविभागों की वृद्धि पूर्व स्पर्धक की अंतिम वर्गणा की अपेक्षा उत्तरवर्ती स्पर्धक की पहली वर्गणा में जानना चाहिये और 'परंपरा होंति सव्वाओ' यानि परंपरा वृद्धि पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा की अपेक्षा छह प्रकार की समझना चाहिये । वे इस प्रकार-१ अनन्तभागवृद्धि २ असंख्यातभागवृद्धि ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि ५ असंख्यातगुणवृद्धि और ६ अनन्त गुण वृद्धि । इसका आशय यह हुआ कि पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा की अपेक्षा कितनी ही वर्गणायें अनन्तभागाधिक स्नेहाणु वाली, कितनी ही असंख्यभागाधिक स्नेहाणु वाली और कितनी ही संख्यातभागाधिक स्नेहाणु वाली होती हैं । इस प्रकार प्रत्येक स्पर्धक में रही हुई वर्गणाओं की अपेक्षा तीन वृद्धि होती हैं। पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा की अपेक्षा पहले स्पर्धक से लेकर संख्यात स्पर्धकपर्यन्त प्रत्येक