Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८
रीति से दूसरे योगस्थान से तीसरे योगस्थान में अधिक हैं । इस तरह उत्तरोत्तर योगस्थान में स्पर्धक अधिक अधिक होते हैं ।
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पूर्व - पूर्व योगस्थान से उत्तरोत्तर योगस्थान में स्पर्धकों की वृद्धि होती है, इस पर शंकाकार अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है
शंका- आप यह किस हेतु से कहते हैं कि पूर्व - पूर्व योगस्थान से उत्तर- उत्तर के योगस्थान में स्पर्धकों की वृद्धि होती है ? क्योंकि एक योगस्थान में एक ही आत्मा के प्रदेश लिये जाते हैं और प्रत्येक आत्मा के प्रदेश समान होने से दूसरे योगस्थान में आत्म-प्रदेशों की वृद्धि नहीं हो पाती है, जिससे स्पर्धकों की संख्या में वृद्धि हो सके ।
समाधान - शंका का यह अंश ठीक है कि एक योगस्थान में एक ही आत्मा के प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं और आत्मा के प्रदेश नियत होने से उनकी संख्या में वृद्धि नहीं होती है । परन्तु यह जानना चाहिये कि पहले योगस्थान में की प्रत्येक वर्गणा में जितने जीवप्रदेश होते हैं उनसे दूसरे आदि योगस्थानों की प्रत्येक वर्गणाओं में प्रारम्भ से ही जीव प्रदेशों की संख्या हीन - हीन होती जाती है । जैसे-जैसे वीर्यव्यापार बढ़ता है, वैसे-वैसे वर्गणाओं में आत्मप्रदेशों की संख्या अल्प- अल्प होती जाती है । अल्प वीर्यव्यापार वाले जीव प्रदेश अधिक तथा अधिक-अधिक वीर्यव्यापार वाले प्रदेश अनुक्रम से अल्प- अल्प होते हैं और ऐसा होने में जीवस्वभाव कारण है । ऐसी स्थिति होने से दूसरे योगस्थान में पहले योगस्थान जितने स्पर्धक होने के बाद भी आत्मप्रदेशों की संख्या बढ़ेगी और उनकी वर्गणा तथा स्पर्धक बनेंगे । इसी से दूसरे योगस्थान में स्पर्धकों की संख्या में भी वृद्धि होगी । इसी प्रकार उत्तरोत्तर योगस्थान में भी स्पर्धक की वृद्धि का विचार समझ लेना चाहिये ।
इस प्रकार से अनन्तरोपनिधा प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये | अब क्रमप्राप्त परम्परा से मार्गणा करने रूप परंपरोपनिधा प्ररूपणा का कथन करते हैं ।