Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६, २०
आशय यह हुआ कि बंधननामकर्म के उदय से परस्पर बद्ध हुए शरीर-पुद्गलों के स्नेह का आश्रय लेकर जिसमें स्पर्धक का विचार किया गया हो वह नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा है और पांच शरीर रूप परिणमते पुद्गलों में स्निग्धपने की तरतमता बताना नामप्रत्ययप्ररूपणा कहलाती है। ___३. योग रूप हेतु द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गलों के स्नेह का आश्रय करके स्पर्धक का जिसमें विचार किया जाये वह प्रयोगप्रत्यय स्पर्धक प्ररूपणा है। अर्थात् प्रकृष्ट योग को प्रयोग कहते हैं। इस कारणभूत प्रकृष्ट योग के द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गलों के स्नेह का आश्रय लेकर जो स्पर्धक प्ररूपणा की जाती है उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहते हैं और उत्कृष्ट योग से ग्रहण होने वाले पुद्गलों में स्निग्धता की तरतमता कहना प्रयोगप्रत्यय प्ररूपणा
उक्त तीन प्ररूपणाओं में से प्रथम स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा का निर्देश करते हैं। स्नेह प्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा
अविभागाईनेहेणं जुत्तया ताव पोग्गला अस्थि । सव्वजियाणंत गुणेण जाव नेहेण संजुत्ता ॥१९॥ जे एगनेह जुत्ता ते बहवो तेहिं वग्गणा पढमा।
जे दुगनेहाइजुया असंखभागूण ते कमसो ॥२०॥ शब्दार्थ-अविभागाईनेहेणं-अविभागादि स्नेह से, जुत्तया–युक्त, ताव-तब तक, पोग्गला-पुद्गल परमाणु, अस्थि-होते हैं, सव्वजियाणंतगुणेण --सर्व जीव राशि से अनन्त गुण से, जाव-यावत् तक, स्नेहेण-स्नेहाणु संजुत्ता- युक्त, सहित । __ जे–जो, एगनेह जुत्ता-एक स्नेहाणु से युक्त हैं, ते- वे, बहवोबहुत हैं, तेहि-उनकी, वग्गणा-वर्गणा, पढमा-पहली, जे–जो,