Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
वर्गणाओं से प्रदेशगणना की अपेक्षा सबसे कम हैं। उनसे वैक्रियशरीरप्रायोग्य वर्गणायें अनन्त गुणी हैं। उनसे आहारकशरीरयोग्य वर्गणायें अनन्त गुणी हैं। इसी प्रकार तैजस आदि कर्मप्रायोग्य वर्गणायें उत्तरोत्तर अनन्त गुणी जानना चाहिये। क्योंकि ग्रहणप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणागत प्रदेश राशि से अनन्त गुण अग्रहण वर्गणायें अन्तराल में होने से उत्तरोत्तर की वर्गणाओं में क्रम से अनन्तगुणे प्रदेश कहे हैं। इस प्रकार से ग्रहण और अग्रहण प्रायोग्य वर्गणाओं का स्वरूप जानना चाहिये। ___ इन वर्गणाओं के वर्णन में कतिपय मतभेद भी है। जैसे कर्मप्रकृति चूर्णि में औदारिक एवं वैक्रिय के बीच में तथा वैक्रिय और आहारक वर्गणा के बीच में अग्रहण वर्गणायें नहीं मानी हैं, किन्तु विशेषावश्यकभाष्य में मानी हैं और कार्मणवर्गणा के बाद यहां जिस रीति से वर्गणायें कही हैं, उससे विशेषावश्यकभाष्य में भिन्न रूप से वर्णन किया है। जिसका स्पष्टीकरण परिशिष्ट में किया गया है। - पुद्गलों का परस्पर संबंध स्नेहगुण से होता है, स्नेह के बिना संबंध नहीं हो सकता है, अतएव अब पुद्गलों के परस्पर संबंध में हेतुभूत स्नेह का विचार करते हैं । उस स्नेह का विचार तीन प्रकार से किया जाता है
(१) स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा (२) नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा और (३) प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा । इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
१. स्नेह निमित्तक स्पर्धक की प्ररूपणा को स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहते हैं । अर्थात् स्नेह के निमित्त से होने वाले स्पर्धक का विचार जिस प्ररूपणा में किया जाता है वह स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहलाती है।
२. बंधननामकर्म जिसमें निमित्त है, ऐसे शरीर प्रदेश के स्पर्धक का विचार नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहलाती है। जिसका