Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
राल में रहे हुए योगस्थान असंख्यात गुणे हैं । क्योंकि श्रेणि के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेश प्रमाण योगस्थानों का उल्लंघन करने पर ही द्विगुणवृद्ध स्पर्धक वाला अथवा द्विगुणहीन स्पर्धक वाला योगस्थान प्राप्त होता है । इसीलिये अन्तरालवर्ती योगस्थानों का प्रमाण असंख्यात गुणा कहा गया है।
इस प्रकार से परंपरोपनिधा प्ररूपणा का कथन जानना चाहिये । अब वृद्धि प्ररूपणा अर्थात् योगस्थानों की वृद्धि का विचार करते हैं । वृद्धि प्ररूपणा
वड्ढंति व हायंति व चउहा जीवस्स जोगठाणाई।
आवलिअसंखभागंतमुत्तमसंखगुणहाणी ॥१०॥ शब्दार्थ-वड्ढंति-बढ़ते हैं, व–अथवा, हायंति-घटते हैं, व–अथवा, चउहा-चार प्रकार से, जीवस्स-जीव के (में), जोगठाणाइं--योगस्थान, आवलिअसंखभाग-आवलिका के असंख्यातवें भाग, अन्तमुत्तं-अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त, असंखगुणहाणी--असंख्यात गुण हानि एवं (वृद्धि) ।
गाथार्थ-जीवों में योगस्थान चार प्रकार से बढ़ते हैं अथवा घटते हैं । असंख्यातगुण वृद्धि एवं हानि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होती है और शेष (तीन) वृद्धि और हानि आवलिका के असंख्यातवें भाग समय पर्यन्त होती हैं ।
विशेषार्थ-गाथा में जीवों के योगस्थानों में होने वाली वृद्धि अथवा हानि के प्रकारों एवं उनका समय मान बतलाया है।
वृद्धि और हानि के प्रकारों का निर्देश करते हुए बताया है'वड्ढंति व हायंति व चउहा'-वृद्धि और हानि चार प्रकार की है अर्थात योग प्रवृत्ति की वृद्धि, हानि का आधार वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम पर अवलंबित है। उसका क्षयोपशम किसी समय बढ़ता है, किसी समय घटता है, और किसी समय उतना ही रहता है, उसमें वृद्धि-ह्रास नहीं होता है जिससे योगस्थान भी किसी