Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४, १५
प्रायोग्य वर्गणा होती हैं । तत्पश्चात् अग्रहणप्रायोग्य जिनके बीच में ही हुई है ऐसी अनन्त वर्गणाएँ होती हैं ।
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औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस्, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण विषयक आठ ग्रहण प्रायोग्य वर्गणायें हैं । इन वर्गणाओं के द्रव्य की अपेक्षा उत्तरोत्तर परमाणु अधिक होते हैं और क्षेत्र की अपेक्षा विपरीत क्रम है ।
विशेषार्थ – इन दो गाथाओं में जीव द्वारा ग्रहण योग्य वर्गणाओं के स्वरूप का वर्णन किया गया है कि जीव द्वारा कितने परमाणुओं वाली वर्गणायें ग्रहण की जाती हैं। इसको स्पष्ट करते हुए कहा है
'एगपएसाइ अनंतजाओ होऊण होंति उरलस्स' अर्थात् एक परमाणु से लेकर यावत् अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न वर्गणाओं का अतिक्रमण करने के अनन्तर प्राप्त होने वाली वर्गणायें औदारिक शरीर के योग्य होती हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक परमाणु रूप वर्गणा, दो परमाणुओं की बनी हुई वर्गणा, तीन परमाणुओं की बनी हुई वर्गणा, इस प्रकार क्रम से बढ़ते हुए संख्यात परमाणु की बनी वर्गणायें, असंख्यात और अनन्त परमाणु की बनी हुई वर्गणायें जीव के ग्रहणयोग्य नहीं हैं, किन्तु अनन्तानन्त परमाणुओं की बनी हुई वर्गणाओं में से कितनी ही ग्रहणयोग्य हैं, और कितनी ही ग्रहणयोग्य नहीं हैं ।
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इन वर्गणाओं में जो परमाणु रूप वर्गणा हैं उसे परमाणु वर्गणा कहते हैं । यानि इस जगत में जितने अलग-अलग परमाणु हैं, वे प्रत्येक वर्गणा रूप हैं । यद्यपि कम-से-कम दो और अधिक से अधिक अनन्तानन्त परमाणुओं के पिंड को वर्गणा कहा जाता है। किन्तु इन अलगअलग परमाणुओं में भी प्रत्येक परमाणु अनन्त पर्याय युक्त हैं तथा उन परमाणुओं में पिंड रूप में परिणत होने की योग्यता - शक्ति है, जिससे उन प्रत्येक अलग-अलग परमाणुओं में भी वर्गणा शब्द का