Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६
वग्गणाओ - वर्गणायें, रूबुत्तरिया - तत्पश्चात् उत्तरोत्तर एक-एक अधिक वीर्याणुवाली, असंखाओ - असंख्यात ।
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गाथार्थ - सर्व से अल्प वीर्य वाले जीव प्रदेशों की पहली वर्गणा होती है, तत्पश्चात् उत्तरोत्तर एक-एक अधिक वीर्याणु वाली दूसरी, तीसरी आदि असंख्य वर्गणायें होती हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में वर्गणा का स्वरूप और उनकी संख्या का प्रमाण बतलाया है ।
यद्यपि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न वीर्य तो समस्त आत्मप्रदेशों में समान ही होता है, किन्तु जो प्रदेश कार्य के निकट होते हैं अथवा जिन प्रदेशों के निकट कार्य होता है वहाँ वीर्य - व्यापार अधिक होता है और जिन-जिन प्रदेशों का कार्य दूर होता है वहाँ वहाँ अनुक्रम से वीर्य - व्यापार हीन-हीनतर होता जाता है। तभी अल्प और क्रमश: अधिक - अधिक वीर्य-व्यापार वाले प्रदेशों की प्राप्ति हो सकती है और वैसा होने पर वर्गणा, स्पर्धक और योग स्थानों की निष्पत्ति रचना सम्भव है |
उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति को वीर्य और उसके व्यापार यानी कार्य में प्रवृत्त वीर्य को योग कहते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि पहले को लब्धि-वीर्य और दूसरे को उपयोग- वीर्य कहते हैं । लब्धिवीर्यं प्रत्येक आत्मप्रदेश पर समान होता है, परन्तु उपयोग वीर्यं समान नहीं होता है । जिस प्रदेश के कार्य निकट होता है वहाँ वीर्य-व्यापार अधिक और जैसे-जैसे कार्य दूर होता है वैसे-वैसे अल्प वीर्य - व्यापार होता है । उसी से वर्गणा, स्पर्धक और योगस्थान की उत्पत्ति हो सकती है ।
प्रस्तुत में वर्गणा प्ररूपणा का विचार किया जा रहा है । अतएव यहाँ पहले वर्गणा का स्वरूप बतलाते हैं ।
भव के प्रथम समय में वर्तमान लब्धिअपर्याप्त अल्पातिअल्प वीर्य - व्यापार वाले सूक्ष्म निगोदिया जीव का वीर्य - व्यापार भी समस्त