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एक जीव व्यवहार राशि में आता है। जीव के उपर सिद्ध परमात्मा का यह अनौपचारिक उपकार है। व्यवहार राशि में आए हुए जीव के पास अपने विकास की कोई विधि, विधान, साधन या मार्ग नहीं होता है। सिद्ध परमात्मा हमारे शाश्वत पिता है तो अरिहंत परमात्मा हमारी शाश्वत माता है। मुक्ति पाने तक हमारी समस्त व्यवस्था एवं अवस्था वे सम्हालते हैं। एकबार व्यवहार राशि में आ जाने के बाद जीव की प्रगति केवल मात्र परमात्मा की करुणा से ही होती है। जैसे माता शिशु का पालन वात्सल्य और करुणा से करती है। गर्भ से लेकर जन्म के बाद काफी समय तक माँ बच्चे को सम्हालती है। जैसे जैसे बच्चे का स्वयं का सामर्थ्य प्रकट होता है वैसे वैसे माँ उसे स्वात्मनिर्भर करती है। उसी तरह परमात्मा हमारे सामर्थ्य संपन्न होने तक स्वयं के सामर्थ्य का प्रयोग करते है। हम स्वयं भगवत् आत्मा है परंतु कर्मो के कारण हम स्वयं के सामर्थ्य से अनभिज्ञ है। जैसे करोडपती का बच्चा बचपन में किसी के पास चोकलेट देखकर अपना हाथ फैला देता है। जब उसे अपने सामर्थ्य की समझ आती है तब उसे अपनी इस हरकत की शरम आती है। परमात्मा भी हममें हमारी भगवत्सत्ता को प्रगट होने का अवसर देते है। पहचान कराते है। सारे शास्त्र, प्रभु की देशना आदि परमात्मा के सारे सामर्थ्य केवल मात्र हमारा सामर्थ्य प्रकट करने के है। मोक्ष का सामर्थ्य संपन्न होते ही हम स्वयं भगवान हो जाते है।
तीसरा शब्द संयोजन है अरिहंत + आणं। यह है हमारे परमात्मा के साथ के आज्ञामय संबंध। आज्ञा कौन देता है ? किसको देता है ? क्यों देता है ? जीव का स्वाभाविक विकास संज्ञा, प्रज्ञा और आज्ञा से संबंध रखता है।
जैसे जन्म के साथ ही बच्चे को खाने की संज्ञा होती है। उसे बोध या प्रज्ञा नहीं होती कि क्या खाना ? कितना खाना ? कैसे खाना आदि। चाहे खाद्य पदार्थ हो या खिलौना हो वह मुह में ही डालता है। खाने की कोशिश करता है। माँ धीरे धीरे उसे बोध देकर प्रज्ञान्वित करती है। उससे भी बडे होने पर माँ उसे आज्ञा करती है ये तुझे खाना चाहिए ये तुझे नहीं खाना चाहिए।आज्ञा के नहीं मानने पर उसे शिक्षा भी देती है। इसी तरह परमात्मा के साथ भी हमारे तीन तरह के संबंध है। अनादि काल से हम केवल संज्ञा के आधार पर ही परिभ्रमण करते थे। परम करुणानिधान अनंत करुणा द्वारा हमारी प्रगति का आयोजन करते हैं । यहा तक तो न हमारा कोई अर्पण है न समर्पण । एक पक्षीय प्रेम से हमारी इस विकास यात्रा का प्रारंभ होता है। तब हम दुसरे प्रज्ञामय संबंध के योग्य होते है। समर्थ होते है। इसमें परमात्मा हमें बोधान्वित करते हैं। प्रज्ञामय संबंध से संबोधि का दान कर प्रभु योग्य आचरण के लिए आज्ञा प्रदान करते है।
___ आज्ञा में दो शब्द है। आ याने आत्मा और ज्ञा याने ज्ञान। जो आत्मा का ज्ञान प्रस्तुत करे। उसका नाम आज्ञा। आज्ञा किसकी होनी चाहिये? आज्ञा तो कोई भी दे सकता है? जिन्हें आत्मा का ज्ञान हो सकता हो वे हमें आज्ञा दे सकते है। अत: आत्मज्ञानी पुरुषों की आज्ञा स्वीकारणीय होती है। शिष्य ने गुरु से पुछा, धर्म क्या होता है ? गुरु ने कहा आणाए धम्मो। और किसी धर्म की व्याख्या को और किसी धर्म के स्वरुप को समझो न समझो परंतु इतना तो मानना ही पडेगा कि आज्ञा ही धर्म है। एक बार एक शिष्य ने गुरु से पूछा, गुरु मैने दीक्षा तो ले ली परंतु मुझसे भूखा नहीं रहा जाता। मुझसे उपवास नहीं किया जाता, कोई बात नहीं बेटा तुम्हे क्या खाना, कितना खाना,
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