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चलाता रहा। धर्मचक्र ध्यानचक्र में प्रगट हो गया। ध्यानचक्र में जिनचक्र प्रगट हो गया। जिनचक्र में जिनवर प्रगट हो गए। ज्योत से ज्योत प्रगट हो गई। कर्म टुटते गए। उपसमरस क्षायिकभाव में परिणमित हो गया। श्रेणी का प्रारंभ हो गया। धर्मध्यान शुक्लध्यान में परिणमित हो गया। शुक्लध्यान आत्मसात होकर पूर्णज्ञान में रुपांतरीत हो गया। निजचेतना जग गई। सत्स्वरुप खिल गया और केवलज्ञान प्रगट हो गया।कुछ ही क्षणों में देवदुंदुभि बजने लगे। महाकेवलि परमज्ञानी चंद्रावतंस भगवान के नाम के जयजयकार होने लगा। नमोत्थुणं लोगपईवाणं।
एक राजा को तीन बेटे थे। राजा सन्यास लेना चाहते थे। राज्य का कारभार किस बेटे के हाथ में देना इसपर वे सोच रहे थे। एक दिन राजा ने सद्गुरु से पूछा, आप ज्ञानी हो बताओ मैं किस बेटे को अपनी राज्य का अधिकारी बनाउ? गुरु ने कहा, परीक्षा करनी होगी। क्या कोई कडी परीक्षा होंगी उनकी? कडी परीक्षा क्या होती है? बेटे ही तो हैं बस करनी है परीक्षा। राजमहल में समान स्तर के तीन कक्ष है। हर एक को एक एक कमरा भरने को कह दो। कक्ष पूरा भरना चाहिए। बिल्कुल खाली न रहे। निश्चित समय पर प्रतियोगिता प्रारंभ हो गई। एक पुत्र ने भंडार रुम में से जेवर और सोना-मोहर से कक्ष भरना शुरु किया। सबकुछ लगा चुका परंतु कक्ष न भर पाया। दूसरे पुत्र ने देखा प्रयास करने के बाद भी इसका कक्षा नहीं भर पाया मुझे कुछ ऐसा पदार्थ सोचना चाहिए जो आसानी से कक्ष को भर सके। उसने कूडा-कचरा उठाकर कक्ष को भर दिया। उसने देखा पहले का कक्ष अधूरा है। तीसरे बेटे ने सोचा अभी तो पूरा दिन हैं पहले प्रभु भक्ति कर बादमें कमरा कैसे भरना यह सोचुंगा।
संध्या होते ही राजा गुरु के साथ तीनों कक्ष देखने निकले। पहला अधूरा था, दूसरा भरा तो पूरा था परंतु कूडे-कचरे के भरने से बदबू आ रही थी। उन्होंने तीसरा कक्ष खोला। कमरा पूरा खाली था परंतु कक्ष के एक कोने में दीया टीमटीमा रहा था। सर्वत्र अंधकार था पर यह कक्ष पूर्ण प्रकाशित था। राजा को देखकर आश्चर्य हुआ। वह कुछ समझे सोचे उससे पहले ही गुरु ने कहा, राजन् ! इस राजकुमार ने बहुत सोचसमझकर प्रयास किया है। कक्ष को पदार्थ से नहीं प्रकाश से भरा है। जो राजमहल में प्रकाश कर सकता है वह राज्य की प्रजा के दिल में प्रकाश कर सकता है। राज्यसत्ता का अधिकारी यह राजकुमार है। राजन ! दीया जले तो अंधेरा चला जाता है, यह सच है। लेकिन अंधेरा चला जाए तो दीया जले यह सच नहीं है। दीया तो जलाना ही पड़ता है।
लोगपइवाणं को नमस्कार करते है तब गणधर भगवंत कहते हैं - प्रकाश की प्रतिक्षा मत करो, तुम स्वयं प्रकाश हो। अंधेरा हटाओ और स्वयं को देखो। अप्प दीवो भव..... अपने दीपक खुद बनो। हमें इसी बात का चिंतन करना हैं कि हम स्वयं के दीपक कैसे बने। उजाला बनकर अंधेरे को कैसे देखे। इस साधना में हमारे दो रुप प्रेगट होते हैं। एक वह जो करता है, एक वह जो देखता है। जो देखता है वह जाग्रत है, वह स्वभाव है, वह प्रकृति है। स्वभाव में रही हुयी आत्माने विभाव को देखना हैं। स्वभाव में रहे अंश ने विभाव में रहे अंश को देखना है। आत्माने आत्मा को देखना है। पर सोचो नहीं, घबराओ नहीं लोकप्रदीप का स्पर्श करो। उन्हें नमस्कार करो। आत्मदीपक प्रज्ज्वलित हो जाएगा।
ऐसा ही कोई छोटासा दीपक हम सब के भीतर चिरकाल के शाश्वत स्वरुप को प्रगट करने में, सत्स्वरुप प्रगट करने में सहयोग प्रदान करे ऐसी शुभकामना के साथ लोगपइवाणं मंत्र से अनंत जिनेश्वर भगवंत के चरणों में
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