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है। दिशाएं एक अखंडता को खंडित करके बनती है। आत्मा अविभाज्य सत्ता होते हुए भी विभाजित क्रमों में परिभ्रमण करता है।
चक्र अनेक हैं। जो वृत्त में चलता हैं अर्थात् गोल गोल घूमता है। संसार में प्रत्येक जगह चक्र हैं। पंखा, गाडी, सायकल, गॅस सब चक्र से ही चलते हैं। संसार भी एक चक्र हैं । ध्वज के बीच में अशोकचक्र हैं। हमारे भीतर मूलाधार आदि सात चक्र हैं। सुबह शाम कालचक्र हैं। श्री कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र हैं। चक्रवर्ती की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होता हैं। सूर्य, चंद्र आदि ज्योतिषचक्र है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्मचक्र हैं। परमात्मा के आगे जो चलता हैं वह धर्मचक्र हैं। मोक्षदायी महामंत्र सिद्धचक्र हैं। ऐसे अनेक चक्र हैं। जो आवर्तन अर्थात् फिराकर चलाते हैं उन्हें चक्रवर्ती कहते हैं।
आप सोचोगे छह खंड के विजेता चक्रवर्ती में और धर्म तीर्थंकर चक्रवर्ती में क्या अंतर है? चक्रवर्ती में आवेश होता है, आवेग होता हैं और उत्तेजना होती हैं। तीर्थंकर आवेश शून्य, आवेग रहित और अनुत्तेजित होते हैं। चक्रवर्ती दुःख का दमन कर सुख प्राप्ति के प्रयास करता है। तीर्थंकर दुःख का विसर्जन कर आनंद की प्राप्ति करते हैं। चक्रवर्ती की कृपा हो जाए तो दुःख का अंत नहीं करते हैं, दुःख को सुख में बदल देते है। तीर्थंकर दुःख का अंत करते हैं और शाश्वत सुख की प्राप्ति कराते हैं। चक्रवर्ती दारिद्र्य तत्काल अंत नहीं करते, तात्परक समाधान करते हैं। तीर्थंकर दारिद्र्य का अंत कर शाश्वत समृद्धि प्रगट करते हैं। चक्रवर्ती दुर्भाग्य को केवलकर्म फल बता देते है। तीर्थंकर कहते हैं, भाग्य को मत कोस । तू स्वयं भगवान हैं। इसे समझ ले। इस बोध को प्राप्त कर । चक्रवर्ती स्वयं भी जागृत न हो तो दुर्गति में जा सकते हैं। तीर्थंकर भगवान दुर्गति में जाने के कारण समझाते हैं और चारों गतियों का अंत करनेवाले धर्मचक्र की प्रतिष्ठा करते हैं।
तीर्थंकरों के क्रमबद्ध स्मरण को जिनचक्र कहते हैं । आपने सर्वतोभद्र यंत्र के बारे में सुना होगा। जिसमें १७० तीर्थंकर भगवान की उपासना का क्रम हैं। यह तिजयपहुत्त स्तोत्र से संयोजित हैं। साधना में से चारों तरफ से उपासा जाता हैं। तब साधक गर्भस्थ शिशु की तरह ६८० तीर्थंकरों के मध्यम स्थान में सुरक्षित और आरक्षित हो जाता है। ऐसी महान साधनाएं धर्मचक्र से उपजती हैं। इस सूत्र से प्रदत्त एक अत्यंत आवश्यक आदेश प्राप्त होते हैं। धर्ममार्ग में प्रवेश करते हुए हमें कहा जाता हैं जयं विहारी वत्स ! यतना पूर्वक स्थानपर विचरण कर । दूसरा यात्रा और विश्राम दोनों में तेरा चित्तणिवाती चित्तनिपात रखना । चित्तनिपात पूर्वक किया जानेवाला अनुष्ठान चैत्यवंदन हो जाता हैं। तीसरा हैं पंथनिज्जाति अर्थात् पथदर्शन कर मार्ग में आनेवाले वातावरण और परिस्थितियों का अवलोकन कर । केवल अवलोकन कर, दर्शन कर उसमें व्यामूढ मत हो जा । प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति या वातावरण को अपना या शाश्वत मत समझ लेना। चौथा है पलिबाहरे स्वयं की गली से बाहर आते ही पांसिय पाणे गच्छेजा अन्य प्राणियों को देख उनमें भी तेरे जैसी ही चेतना है । उनमें भी सिद्धत्त्व है । समस्त जीव सृष्टि में भगवत्सत्ता है ऐसा अनुभव करता हुआ आगे बढ । तेरा सिद्धत्त्व तेरी चेतना का साक्षी है। सिद्धत्त्व स्थान नहीं अवस्था है। उसे तुझे पाना है। प्रगट करना है। साक्षीमय हो जाना है।
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