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होकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं वे प्रत्येकबुद्ध केवली हैं।
६) स्वयंबुद्ध केवली :
स्वयं के चिंतन से प्रबुद्ध होकर जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है वे स्वयं बुद्ध केवली हैं।
७) बुद्धबोधित केवली :
आचार्यद्वारा प्रतिबुद्ध होकर केवलज्ञान प्राप्त करनेवाले बुद्धबोधितकेवली कहलाते हैं।
८) असोच्चा केवली :
जिन्हें केवलियों के वचन सुने बिना केवलज्ञान प्राप्त हुआ हो वे असोच्चा केवली हैं।
९) सोच्चा केवली
जो वली भगवान से उपदेश श्रवण कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं उन्हें सोच्चा केवली कहते हैं ।
ज्ञानदर्शनधराणं के बाद एक शब्द आता हैं वियट्टछउमाणं अर्थात् परमात्मा छद्मस्थ अवस्था से वृ होते हैं। अर्थात् उनकी आत्मा कर्म बंधनों के आवरणों से अनावृत्त हो जाती हैं। छद्म अर्थात् आच्छादन, आवरण, परदा। कर्मबंधनस्वरुप आवरणों को हटाकर अनावृत्त अवस्था को प्राप्त हो जाना वियट्टछउमाणं हैं। अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं शब्द से परमात्मा को नमस्कार करते है तब परमात्मा कहते है मैं अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं के साथ वियट्टछउमाणं हूं । छउमाणं अर्थात् छद्मस्थ अवस्था । वियट्ट अर्थात् उसे खोलने वाला, उसका विमोचन करनेवाला, उसका उद्घाटन करनेवाला । तब हमें याद आता है हमने परमात्मा को आइगराणं कहकर आमंत्रित किए थे। हमारी परमविशुद्ध आत्मदशा का प्रारंभ करते हुए उन्होंने कहा था, धर्म आवृत्त और विवृत्त दो में प्रवृत्त है । आवृत्त अर्थात् आवरण में रहनेवाला । विवृत्त अर्थात् खोलना, विमोचन करना, आवरण हटाना। भीतर अत्यंत मूल्यवान है। समृद्ध है। जैसे गिफ्ट पेक कितना अच्छा वह औरों के लिए दिखावा मात्र था पर पेक खुलने पर अनुभव होता है कि भीतर के पदार्थ बहुमूल्य है। हमारी आत्मा अनंत ऐश्वर्य सम्पन्न है । बाह्य आवरण हटने पर भीतर प्रगट होता है। संतों का काम आवरण हटाने में साधनाद्वारा सहाय करना है । वियट्टछउमाणं अर्थात् केवलज्ञान प्रगट करना । भगवान कहते हैं कब तेरा वियट्टछउमाणं करु ? वियट्टछउमाणं करते ही तू अप्पडिहयवरणाणदंसणधराणं हो जाएगा। हे परमतत्त्व ! पूर्णज्ञानदर्शन के धारक परमात्मा को नमस्कार कर उनके साथ चतुष्मंगल स्वरुप में प्रवेश कर सांयोगिक संबंध की उपासना करते हैं।
|| नमोत्थुणं अप्पsिहयवरनाणदंसणधराणं - वियट्टछउमाणं ।।।
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