Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

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Page 212
________________ नमोत्थुणं जिण्णाणं जावयाणं एक जीत है जो जीत से होती है, एक जीत है जो हार से होती है। जिण्णांण अर्थात् जो जिन बन गए है। जावयाणं अर्थात् जो औरों को भी जिन बना सकते है। स्वयं भगवान जीत गए और अन्य कोभी जितने में उन्होंने योगल बल प्रस्तुत किया। सामान्यत: जो जीतता है वह दूसरों को हराकर जीतता है। एक जिनेश्वर ही हैं जो स्वयं दूसरों को हराए बिना जीतते है। गौतमादि गणधर भगवान को हराने आए थे। भगवान को हराकर उन्हें जीत चाहिए थी। प्रथम गणधर इंद्रभूति गौतम ने अनुभव किया कि सृष्टि में यह पहला अवसर हैं कि मुझे हराए बिना कोई जीत रहा है। स्वयं ही जीत नहीं रहे हैं मुझे भी जीता रहे है। इस जीत की ऐसी रीत हैं जो जिताकर प्रीत देती है। जिनेश्वर की जीत चेतना की जीत है। संपूर्ण चेतना जाग्रत हो जाती है। कोई संघर्ष नहीं। कोई युद्ध नहीं। स्वयं ने स्वयं के साथ स्वयं को जीतना है। जब अन्य कोई आता तो संघर्ष होता है। किसी द्वंद्व के बिना चेतना का जागरण जीत बन जाता हैं। भगवती सूत्र मे कहा हैं सव्वेणं सव्वे हमारी चेतना असंख्य प्रदेश में व्याप्त हैं। प्रत्येक प्रदेश द्वारा आत्मा जाना जाता हैं जीता जाता है। किसी मात्र एक प्रदेश से नहीं बल्कि सभी प्रदेश से जानता हैं। भगवान महावीर को उडद के बाकुले बहेराकर चंदना ने धीरे से इतना ही कहा था प्रभु! अब मुझे तारलो। मैं इस संसार से हार गई हूँ। भगवान ने कहा, चंदन ! मुझे हारी हुई नहीं जीती हुई चंदना चाहिए। चंदना तुम चेतना में आओ। तुम्हें अनुभव होगा, तुम हारी नहीं हो जीती हो। तुम्हारी यह जीत अन्यों को पराजित कर पाई जानेवाली जीत नहीं है। यह तुम्हारी भगवत् सत्ता की जीत है। चंदन समय को जानो, स्वयं को पहचानो। शरीर नश्वर हैं ऐसा तुमने कईबार जाना परंतु आत्मा परमेश्वर हैं ऐसा समझना तुम्हारी विजय हैं। इस विजय में तुम्हें अनुभव होगा कि अब सिर्फ राजगृह का स्थान बदलना हैं, भाव से तुम स्वगृह सिद्ध स्वरुपा हो। प्रत्येक चेतन में स्वयं की चेतना को देखना तुम्हारा सर्वोत्तम पराक्रम हैं। अब दृश्य को नहीं दृष्टा को देखो। मैं को हटओ मैं से मिलो वत्सा!। यह बिना पराजय की जय है। जिण्णाणंजावयाणं हो जाओ। चंदन अचरज से प्रभु की ओर देखती रही। भगवान को समझते समझते स्वयं को समझने लगी। बाहर भगवान को देखते देखते स्वयं में भगवान को देखने लगी। उसने अनुभव किया कि उडद के बाकुले के द्रव्यदान में स्वयं का समर्पणदान हो चुका है। महल के तलघर के क्षेत्र में भीतर का अतल क्षेत्रपर स्वयं का राज हो चुका है। काल की सीमाएं तूट चुकी है। कालातीत सिद्धत्त्व स्वयं अपनी समृद्धि छलका रहा है। भावातीत भगवान भीतर प्रगट हो गए। जनदृष्टि से भगवान वहाँ से लौट चुके थे। पर वास्तव में चंदना स्वयं के भीतर सदा भगवान को साथ अनुभव कर रही थी। तत्त्व श्रद्धा होते ही योग की शुद्धि होती है। दर्शन मोहनीय का अंश समाप्त हो जाता है। दर्शन मोहनीय में श्रद्धा के स्वीकार का अंश होता है और चारित्र्य मोहनीय में आचरण की हकीकत होती है। 210

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