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मत कर यदि ऐसा कुछ करेगा तो भगवान पाप देंगें । सव्वपावप्पणासणो के जाप करनेवाला उपासक परमात्मा को ही पाप दाता मानते हैं। उनके अस्तित्त्व का स्वीकार करके हमारे व्यक्तित्त्व के नमस्कार होने से पाप का नाश होता है और वह भी कतृत्त्व से मुक्त रहकर । यदि भगवान ही पाप देंगे तो पापमुक्त कौन करेगा?
भगवान से भयभीत होना अर्थात् हमारे स्वयं के अस्तीत्त्व से भयभीत होना है। नमो में अस्तित्त्व का स्वीकार होनेपर हमें सूत्र में प्रवेश मिलता है। श्रद्धा और विश्वास जहाँ होता है वहाँ भय टूटता है। जो एक परमात्मा से ही भयभीत होता है उसे संसार के सारे भय चारों ओर से भयभीत कर सकते हैं। सामान्यतः हम सब को मृत्यु का भय होता है, ऐसा हम मानते हैं परंतु वास्तव में हम सबको मृत्यु की अपेक्षा जीवन से भय अधिक है। सातों भयों में मृत्यु का भय स्वतंत्र भय हैं और बाकी के छह भय जीवन के हैं। इसमें भगवान का भय तो कोई हैं नहीं। जीवन में हमें हर कदम पर भय का अनुभव होता है। ऐसा करूंगा तो ऐसा होगा और ऐसा करूंगा तो ऐसा होगा। इतना तो ठीक है मेहनत करके पैसा कमाते है उसे सुरक्षित रखने का भय है। घर में रखो तो चोर का भय, पार्टी के पास रखो तो पार्टी उठने का भय, बँक में रखो तो बँक लूट जाने का भय। अपने ही घर में बैठकर अपने ही घरवालों से भयभीत होते है। बेटे को कहेंगे तो ऐसा होगा, बहु को कहेगे तो ऐसा होगा। जीवन में कही भी शांति है क्या? प्रतिक्षण पल पल भय, भ्रम, भेद और अशांति ।
जाणं अभयाणं मंत्र के साथ परमपुरुष के चरणों में मस्तक धर दो सारे विकल्पों का विसर्जन हो जाएगा। चरण के स्पर्श मात्र से ही भयमुक्त हो जाते है। नमो शब्द प्रगट होते ही चरण और मस्तक एकत्त्व साध
है। चरण प्रभु के मस्तक हमारा। ये संयोगधारा दोनों के बीच में एकता प्रगट करती हैं। भेद में अभेद प्रगट होता है। नमन अर्थात् नमस्कार हो । हम यह जानते हैं कि नमो के तीन प्रकार है इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग। नवकार मंत्र का नमो सामर्थ्ययोग है। जीवन में सामर्थ्य प्रगट हो जाए समर्थ पुरुष इच्छा करे तब शास्त्रयोग उसे शब्दों से अशब्द की ओर ले जाता है। शब्द तो संसार हैं। अनेक शब्द भाषा की सहायता लेकर राग द्वेष के शस्त्र चलाते हैं। समस्त प्राणी सृष्टि में सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग और उपयोग मानव करता है। शब्दों से इतिहास का सर्जन होता है और शब्दों से ही विश्वास बंधता है। ऐसे ही शब्दमय संसार में जो शब्द में से अशब्द में ले जाता हैं उसे मंत्र कहते हैं। नमस्कार महामंत्र के नमो और अरिहंताणं के मध्य में रहे हुए गॅप में अस्तु शब्द रखने से नमोत्थुणं शब्द बनता है। अस्तु अर्थात् होना। होना कहने में इच्छा का सूचन है । नमोत्थुणं यह इच्छायोग का नमस्कार है। इस अंतिम पद में अस्तु शब्द हटा दिया गया है। इसमें मात्र नमो शब्द को उच्चाररण हैं। शुद्ध संपूर्ण काका कण होने से यह नमो शास्त्रयोग के नमस्कार का सूचन करता है। इस पद में विधिभंग, आलस, प्रमाद, विकार विकल्प ऐसी कोई भी अपूर्णता की संभावना होती तो नमस्कार शब्द के साथ कुछ कहने की आवश्यकता रहती। परंतु यहाँ किसी भी प्रकार के शब्द का या विशेषणों का प्रयोग नहीं करते हुए केवलमात्र जिनेश्वरों को नमस्कार हो ऐसा कहा हैं ।
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