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मेरा वह अंतिम नृत्य देखा था? आपने आँखे खुली रखकर नृत्य देखा था यह मैं जानती हूँ। मेरा प्रश्न यह है अर्धवस्त्रों में प्रस्तूत इस नृत्य को देखकर आपको क्या अनुभूति हुई? इसी देहलता के साथ आपने जो बारह वर्ष बिताए थे। उस अनुभूति का क्या हुआ?
___ कोशा तुम हारी नहीं हो जीत गई हो। वस्तुत: हार और जीत वहाँ होती हैं जहाँ या तो खेल हो या युद्ध। आप की थकान सांसारिक हैं। आपकी पराजय पारिस्थितिक है और आपकी विजय आत्मिक है। मैंने आपको नृत्य के समय में गहराई से देखा था। आपका ऐसा अद्भुत रूप पहले मैंने बारह वर्ष में कभी नहीं देखा था। तब मेरे पास सिर्फ आपके देह को देखने की दृष्टि थी। गुरुकृपा से अब मैं आपके देह के भीतर के दर्शन कर पाया। आपके भीतर बिराजमान सिद्धत्त्व के दर्शन कर मैं प्रसन्न हो गया। पूर्णिमा की रात आपके परिवर्तन की रात थी। आज की प्रभात आपके चेतना के जागरण की प्रभात है। अंत में कहा अब मुझे गुरुआज्ञा विहार की है। आपके स्थान में रहना अकल्पनीय है। चातुर्मास वास की आज्ञा दी थी वैसे ही विहार की भी आज्ञा दो। तब कोशा ने कहा, चार-चार मास मेरी सेवा लेकर जा रहे हो तो मुझे कुछ देकर भी जाओ।
कोशा की बिनती का स्वीकार कर मुनिश्री ने कहा, प्रज्ञा तीन प्रकार की है - संबंधप्रज्ञा, सिद्धप्रज्ञा और संबोधप्रज्ञा। नमोत्थुणं अरिहंताणं से सव्वन्नुणं सव्वदरिसीणं तक संबंधप्रज्ञा है। सिवमयल... से लेकर सिद्धिगइनामधेयं तक सिद्धप्रज्ञा है और नमो जिणाणं जिअभयाणं पद संबंधप्रज्ञा का है। आज मैं प्रज्ञात्रय का आपमें आरोपण करता हूँ। सिद्धत्त्व पाने से पूर्व श्रावकत्व की प्रयोगशाला प्रवेश पाकर पवित्र हो जाओ। आगार में हो तो आगार धर्म का स्वीकार करो। कोशा बन गई जिन श्राविका। बारह व्रत देकर मुनिश्री ने विहार का विधान अपनाया कोशा ने पूछा अब आप कहाँ पधार रहे हो? मुनिश्री ने कहा मैं वहाँ जा रहा हूँ जहाँजन में से जिन बनने। जिन में से शिव बनने। शिवबनकर अचल रहने। अचल बनकर अरोगी रहने। अरोगीपने का अनंतत्त्व भोगने। अनंतत्त्व को अक्षय रखने। अक्षय का अव्याबाधत्त्व भुगतने।
अव्याबाधत्त्वकी अपुनरावृत्ति पाने। इतना कहकर मुनिश्री ने प्रस्थान किया। कोशा आँखे बंद कर मंत्रमुग्ध बन रही थी। तीनों प्रज्ञाओं से प्राण्नन्वित हो रही थी। उसमें अपार पराक्रम और सामर्थ्य प्रगट हो चुका था। गणधर प्रदत्त सिद्धप्रज्ञा की सप्तपदी आत्म प्रदेशों में आछन्न हो रही थी। अद्भुत था वातावरण उसमें व्यक्तित्त्व भी अद्भुत हो रहा था। अद्भुत और अलभ्य उपलब्धि से लाभान्वित कोशा में सातों पद साकार होने लगे। शब्द पद में, पदअर्थ में और अर्थपरमार्थमय होने लगे। परमार्थ परमात्मामय होने की अनभूति में समाने लगा।
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