________________
सुनकर आकुल व्याकुल हो गई। स्नेहपूर्वक जिनके साथ बारह वर्ष प्रणयगोष्ठि की थी उस भद्र की यह आवाज है ऐसा कहकर वह बाहर निकली। साधुवेश में खडे स्थुलिभद्र को देखकर आश्चार्यान्वित हुई कोशा निर्निमेष नेत्रों से मुनिश्री को देखती रही। न मुह से वचन निकले न नेत्र बंद हो पाए। अपलक नेत्रों से वह स्थुलिभद्र को देखती रही। मन, मस्तिष्क और आत्मा से शांत और स्थिर स्थुलिभद्र ने कहा, यह चार्तुमास आपके यहाँ बीताने की गुरुआज्ञा है। आप आज्ञा देगी ? नागीन की तरह उत्तेजित हुई कोशा यह सुनकर बोली जब आपने घर छोडा तब मेरी आज्ञा ली थी? संसार का नियम है कि पुरुष कभी भी स्त्री से आज्ञा नहीं मागता और न तो पुरुष स्त्री के यहां आता हैं बल्कि स्त्री पुरुष के यहाँ जाती है। बारह वर्ष पूर्व जब आप रूपकोषा के प्रणय मंदीर में पधारते थे तब मैंने मेरा आवास पहले आपको भेट किया और बादमें मैं आपके आवास में रहने को आयी थी। तब भी आपने मेरी आज्ञा नहीं मागी थी परंतु इस चित्रशाला को अपना घर मानकर उसमें बारह वर्ष रहे थे। आज उसे पराया मानकर तुम स्वयं ही उसमें रहने की आज्ञा माँगते हो? अब जब आप आज्ञा माँगते ही हैं तो आज्ञा माँगने से आज्ञा को समझने के लिए मेरे कुछ प्रश्नों के उत्तर देने होंगे। कितने समय रहना है? कहाँ रहना हैं और किसतरह रहना हैं? मुनि स्थूलिभद्र ने कहा, १. चार महिनेतक रहना हैं, २. चित्रशाला के कक्ष में ही जहाँ आप कहोगे वहीं रहना है, ३. चारो महिने मौन रखुगा। आहार के समय निर्दोष भिक्षा की प्रवेशना करुगा। कोशा ! स्थान तेरे घर का, मौन मेरी वाणी का होगा। आवास आपका, आज्ञा गुरु की और ध्यान भगवान का करुगा। बस चारो महिना इन चार नियमों का पालन मुझे करना है। नियमों को सुनकर स्तब्ध हुई कोशा ने कहा, ठीक है। कुछ मेरी भी बातें सुनो १: चित्रशाला में आप भले ही बिराजमान रहो। २. चार मास मौन रहो यह भी ठीक है। वाणी का मौन रखना कान का नहीं अत: आपको बोलना नहीं परंतु जो मैं बोलुंगी वह आपको सुनना होगा। ३. ध्यान करो भगवान का उसकी मुझे चिंता नहीं परंतु आँखे खुली रखनी होगी। ४. भिक्षा मात्र मेरी यहीं से लेने की।और मैं जो दूवहीं लेने का। यदि
आपके गुरु आज्ञा देते हैं तो मेरे यहाँ चार्तुमास करो। गुरु की कठोर आज्ञा और कोशा की कठोर शर्ते दोनों की प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गई। चेतना में सदा जाग्रत स्थुलिभद्र जी स्वयं में बेशर्त बनकर साधना प्रवेश के लिए तैयार हो गए। बाह्य स्थान भले ही कोशा का कक्ष हो परंतु भीतर मैं निरंतर प्रभु चरणों में ही रहुंगा। मुझे मात्र वाणी का ही नहीं पाँचों इंन्द्रियों के मौन का पालन करना है। बिचारी कोशा कोई भी शब्द बोल सकती है। मैं क्यों उसका अवरोध करु? साधना शब्दों से सदा अबाधित रही है। मात्र चर्मचक्षु को ही महत्त्व देनेवाली कोशा को क्या पता कि भीतर के नेत्र खुल जानेपर बाहर की आँखे खुली हो या बंद कोई फरक नहीं पडता। षड्रस भोजन भले ही विकार उत्पन्न करनेवाले होते हैं परंतु परमात्मा की आज्ञा और शास्त्रोक्त विधि से किया जानेवाला भोजन निर्विकार होकर साधना का सहयोगी बन जाता है।
242