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नमोत्थुणं
सिव-मयल-मरुय-मणंत- मक्खय- मव्वाबाह-मपुणरावित्तिसिद्धिईनामधेयं ठाणं संपत्ताणं
जानना ज्ञान हैं ।
देखना दर्शन हैं ।
प्राप्त कर लेना मोक्ष हैं।
तीर्थंकर तक यात्रा तीर्थयात्रा हैं।
तीर्थंकर के द्वारा होनेवाली यात्रा सिद्धयात्रा है।
जानना ज्ञान हैं, देखना दर्शन हैं और प्राप्त कर लेना मोक्ष हैं।
मोक्ष जीव की अवस्था हैं। सिद्धत्त्व आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव में आना अर्थात् सिद्ध हो जाना। इस सिद्धत्त्व को पाने के लिए जो गति हैं वह सिद्धगति हैं । उस सिद्धगति में आत्मा की स्थिति कैसी हैं ? उसका स्वरूप कैसा है? यह जानना जीव का स्वभाव है। यह कहने सुनने का विषय नहीं है। यह अवस्था विषय है। कहना सुनना व्यवस्था है। व्यवस्था कथनपरक होती है। अवस्था अनुभूतिपरक होती है। साधकों की जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए गणधर भगवंतो ने इन अवस्थाओं को सात व्यवस्थाओं से समझाइ हैं। बाकी अंत में तो गणधर भगवंत एक ही बात कहते हैं, मोक्ष कोई जोग्रोफिकल एरिया नहीं हैं कि गुरु अपने शिष्य को वहाँ पहुंचा दे यह हम सबका अपनी स्वयं की चेतना का कॉन्सीयसनेस है । हमारे भीतर ही हमारे मोक्ष का एरिया है। गणधर भगवंतों ने मग्गदयाणं के द्वारा मोक्षमार्ग दिखा दिया अब उसे हमने स्वयं प्राप्त करना हैं ।
संपत्ताणं अर्थात् संप्राप्त करना। प्राप्ति अर्थात् उपलब्धि। जो हमें प्राप्त होता हैं वह हमारा बन जाता है । जो हमारा बन जाता हैं उसे संपत्ति कहते हैं। संपत्ति के तीन प्रकार हैं- स्वसंपत, परसंपत और स्वपरसंपत ।
सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणन ठाणं संपत्ताणं
: यह पद परसंपत हैं।
: यह पद स्वसंपत हैं।
नमो जिणांण जिअदयाणं
: यह पद स्वपरसंपत हैं।
परमात्मा का ज्ञान और दर्शन हमारे लिए पर संपत हैं। ज्ञान और दर्शन जब हमें हो जाते हैं। तब वो हमारा हैं। तब तक वह परसंपत कहलाता हैं। ठाणं संपत्ताणं सिद्धत्त्व की प्राप्ति का सूचन हैं। यह प्राप्ति जिन्हें प्राप्त होती हैं वह उनकी उपलब्धि हैं। सिद्धत्त्व को जो प्राप्त करता हैं वह उसकी स्वसंपत हैं। सिद्धत्त्व से पूर्व परमात्मा स्वयं के ज्ञान और दर्शन पर अर्थात् अन्य के लिए देशनारूप में उपयोग करते हैं। सिद्धत्त्व का उपयोग पर के लिए नहीं हो
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