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आक्रमण न हो पाए इसके लिए शक्रेन्द्र ने भगवान महावीर को साथ रखने की बिनती की थी परंतु निराश्रयता को प्रमुखता देते हुए भगवान ने इसका आदेश नहीं दिया। साधु समाचारी में भी जे भवंति अणिस्सिया शब्द रखकर अनाश्रित रहनेवाला सदा निराबाध जीवन जीता है।
पाँचवी दशा हैं निराश्रव। किसी पानी के भरे हौदको यदि खाली करना हो तो पानी के आने की व्यवस्था को बंद करना होगा। पानी आता रहे और हम निकालने का प्रयास करते रहे तो हमारा श्रम निरर्थक हैं। इसीतरह कर्मों के आगमन को आश्रव कहा जाता है। परमात्मा की निराश्रव दशा निरंतर आश्रव रहित होती हैं। तनिक मात्र भी आश्रव का आना न हो इसके लिए सदा जागृत और प्रमाद रहित निर्दोष चर्या प्रभु के साधना का महत्त्वपूर्ण प्रभाव रहा है। इस स्थिति का स्वीकार करने के लिए एक शाश्वत मंत्र जो प्रभु ने स्वीकारा और शासन में उसे सर्वोत्तम स्थान दिया। करेमि भंते ! सावझंजोगंन करेमि, न कारवेमि। इस मंत्र का परमार्थ रोचक और रहस्यमय हैं। हे भगवान ! मुझे करना हैं। शिष्य के द्वारा गुरु या भगवान के प्रति किया गया यह कथन प्रश्न कर सकता हैं, क्या करना हैं ? इसका उत्तर हैं न करेमि, न कारवेमि... करेमि। न करु न कराऊ ऐसा मुझे करना हैं। कितना अद्भुत हैं यह सारे आश्रवों को अलविदा देता हुआ संबंधातीत संबंध का प्रारंभ करता हैं।
प्रज्ञा के दो प्रकार हैं - संबंधप्रज्ञा और सिद्धप्रज्ञा। नमोत्थुणं सूत्र के अभीतक के सभी पद संबंधप्रज्ञा से जुडे हैं। परमात्मा के साथ का द्वैतभाव, भक्त-भगवान का संबंध भाव यह अंतिम परिच्छेद हैं। प्रभु अब हमें स्वयं की निज स्थिति में निजदशा में अनुभूतिमय आगमन कराते हैं। इसे सल्लीनयोग कहो, विलीनयोग कहो, सुलीनयोग कहो सब दूसरी सिद्धप्रज्ञा में समा जाते हैं। सिद्धप्रज्ञा सिद्धक्तत्व की अग्रीम सूचना हैं। मानवीय स्वतंत्र चेतना का स्वायत्त स्वभाव अर्थात् सिद्धत्त्व। सारे प्रयास पूर्ण साधना सिद्धप्रज्ञा की प्राप्ति एवं समापत्ति के लिए हैं। संबोध
और स्वबोध सब सिद्धप्रज्ञा के पूर्वदर्शन हैं। सव्वन्नृणं सव्वदरिसीणं पद सिद्धप्रज्ञा का दान हैं। अब हम निजानुभूति के अपने अनंत ऐश्वर्य संपन्न सिद्धत्त्व की ओर आगे बढ़ रहे हैं। कल हम अपनी इस आनंदयात्रा के द्वारा सिद्ध यात्रा में पहुंच रहे हैं। आपने यदि सभी पदों की पूर्ण उपासना कर आनंद लिया हैं तो कल आपको अनुभव होगा कि आप सर्वोच्च साधक हो। आपकी समस्त बाह्य प्रक्रियांए आपके भीतर के भगवत् स्वरूप के प्रगटीकरण में प्रवेश करा रही हैं।बाह्य व्यक्तित्त्व ही आपकी पहचान नहीं आप सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्ति के उत्तराधिकारी हैं। कल हम चलेंगे सिद्धिगईनामठाणं की ओर। कल हमारी अद्भुत यात्रा हैं। हमारा निजघर में प्रवेश है। इस तैयारी के लिए परमात्मा के चरणों में नमस्कार कर कहते हैं,
।।। नमोत्थुणं सवणं सव्वदरिसीणं ।।। ।।। नमोत्थुणं सव्वणं सव्वदरिसीणं ।।। ।।। नमोत्थुणं सव्वपूर्ण सव्वदरिसीणं ।।।
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