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जे स्वरुप समझ्या विना, पाम्यों दुख अनंत।
समझाव्युं ते पद नमु, श्री सद्गुरु भगवंत ॥ कौनसे स्वरुप को समझे बिना जीव अनंत काल से अनंत दुःख भुगत रहा है। आज कल की बात नहीं अनंतकाल की बात हैं यह। देह अनंत काल से बदलता रहा हैं। इन सारी पर्यायों में एक मात्र एक चैतन्य स्वरुप ही शाश्वत हैं। जबतक इन सब प्रश्नों का पूर्ण उत्तर न मिल सके तब तक स्व चेतना को परमचेतना में विलीन कर देनेका अंजाम हैं। चेतना का खुल जाना। समर्पण से सामान्य ज्ञान भी प्रगट हो जाता है। तो हमारी चेतना स्वधर्मी है। उसे परमस्वरुप के समक्ष समकक्षी अनुरुपता पाने में सहज स्वाभाविक है। एक व्यावहारिक उदाहरण ही देखिए।
एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य से बिनती करते हैं कि, प्रभु! मुझे अपने चरणों में रखो परंतु गुरु द्रोणाचार्य इस बात का इनकार करते हैं तब एकलव्य गुरुद्रोणाचार्य से दूसरी बिनती करते है प्रभु! आप सदा मेरे साथ रहो। रखो
और रहो इन दो विकल्पों इच्छामात्र गुरुदेव की ही थी। रखो का विकल्प केवल गुरु आश्रित हैं। गुरु चाहे तो ही शिष्य गुरु के पास रह सकता है परंतु गुरु को अपने साथ रहने के विकल्प शिष्य स्वतंत्र हैं। रहने के किकल्प में गुरु मेरे साथ रहे उतना शिष्य का संकल्प ही काफी था। जिसने एकलव्य को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाया। इसे बीजभूतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान का दूसरा का प्रकार है। इसमें गुरु शिष्य में ज्ञान का बीज के रूप में वपन करते हैं। जो समय के साथ फल बनकर सफल रहता हैं। एक है वृक्षभूतज्ञान जो केवल निरावरण होते ही प्रगट हो जाता है। वृक्षभूतज्ञान में उसी भव में मोक्ष हो जाता है।
जबतक सर्वज्ञ नहीं बनते तब तक केवलि प्ररूपित ज्ञान का स्वाध्याय करना चाहिए। केवलि भुवनभानुका चरित्र आपने सुना होगा। बाल विधवा के रूप में रही हुई रोहिणी एक लाख से भी अधिक स्वाध्याय का पाठ करती थी। अन्य अनेक दूषणों से दूषित चरित्र होते हुए भी अंत में भवांतर में भुवनभानु के भव में पुनः स्वाध्याय द्वारा ही केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान अप्रतिपाति होता है । अवधिज्ञान आदि प्रतिपाति होते है जो आकर चला जाते हैं। एकबार एक शिष्य को ज्ञान नहीं चढता था। गुरु को पूछता हैं मैं क्या करु जिससे मुझे ज्ञान प्राप्त हो। गुरु ने उसे संतों की सेवा करने की आज्ञा दी। शिष्य वैसा ही करता रहा। जब भी निवृत्त होता तब सोचता, पता नहीं मुझे कब ज्ञान प्राप्त होगा। सोचते सोचते एक दिन निर्मलता के कारण अवधिज्ञान प्रगट हो गया। अवधिज्ञान के द्वारा उसे प्रथम देवलोक दिखाई दिया। उसने देखा, सौधर्मेंद्र अपनी मुख्य आठ देवियों के साथ बैठे थे। कारणवश कोई एक राणी रूठ गयी थी। सौधर्मेंद्र उसे मना रहे थे। रूठी हुई देवी ने इंद्र को ठोकर मारी। ठोकर खाकर भी इंद्र ने उसे कहा, तुझे पैर में लगा तो नहीं? यह देखकर मुनि को हसीं आ गई। बस हँसते ही अवधिज्ञान चला गया। इसीलिए ज्ञान को गंभीरता के गुण से सम्हाला जाता हैं। ज्ञान से पूर्व गुरुद्वारा प्रदत्त सारणवारण आदि चार आचार का सेवन अनिवार्य होता है। प्रमाद के कारण धर्म में आयी हुई क्षति को गुरु सुधारकर याद कराते हैं उसे सारण कहते हैं। अनाचार का प्रवर्तन करते समय गुरु निवारते हैं उसे वारणा कहते है। धर्मभ्रष्ट होने से पूर्व अकार्य का दुषित फल
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