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नियम अन्य किसी भी सावद्य प्रवृत्ति को न करेमि न कारवेमि करना हैं। करेमि भंते, इच्छामि णं भंते! मुझे सावद्य प्रवृत्ति न करनी हो न करानी हो ऐसा मुझे करना है । ऐसा करने की मेरी इच्छा है। ऐसी प्रवृत्ति से आप नियमबद्ध हो जाओ तब ऐसा संभव है। यदि आपके पास कॅमेरा हैं आप उसमें देख रहे है तो रूप के सभी परमाणु उस लेंस तक आते है, परंतु आप जब तक कॅमेरा क्लिक न करो तब तक वे सभी परमाणु कॅमेरा में नहीं आ सकते हैं। बस इसीतरह सर्वज्ञ के कॅमेरे के सामने हो तब तक पर आश्रित कॅमेरा ऑफ रखो । यदि हम वास्तव में अपने भीतर परमात्मा के आनंद लोक का निर्माण कर उसमें अनुभूतिमय हो रहे है तो बाहर का कॅमेरा खुल ही नहीं सकता
हैं।
हमारा भीतर का अनुभूतिलोक वास्तव में ऑनलाईन हो तो हमारी पवित्रता परम पवित्रता से रिचार्ज हो जाती हैं। उस परमपवित्र शक्ति को हमें अपने भीतर रिस्टोर करनी है। जो रिस्टोर होता है वह रियलाईज होता है और जो रियलाईज होता है वहीं यदि संसार के सामने रिलिज हो तो वह नाटक नहीं साधना हैं। वास्तव में हमपर बाहर के वातावरण का गहरा असर होता है। जैसे आपको किसी ने कहा आप बहुत अच्छे हैं। आपने यह काम बहुत अच्छा किया.... आदि आदि आदि आप कितने खुश होगे? सच्चाई से बताइए आपके भीतर कितने आंदोलन होगे? जैसे नंदन मनियार के साथ हुआ। मीठे पानी का विशाल सरोवर बनाने पर लोगोंसे तारिफ सुनी प्रभाव में
इसी प्रभाव के कारण उन्होंने उसी में मेंढक के रुप में जन्म लिया। इसीतरह यदि आपको किसी ने कहा आपने यह ठीक नहीं किया। आपको समझकर करना चाहिए... आदि आदि। ऐसा सुनकर क्या होता है आपको? नाराज होंगे न आप ? कितना बुरा लगेगा आपको ? वास्तव में आप वही हो जो आप है । किसी का आपके बारे में अच्छा बुरा कहना उसकी अपनी सोच है। उसकी सोच से आप बिलकूल अलग है। आप अपने में जैसे भी है अच्छे बूरे उसके बारे में उसका सोचना, मानना, अभिप्राय देना उचित नहीं है। फिर भी उसने आपके बारे में कह भी दिया तो आपपर उसका कोई भी प्रभाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह सोच पुद्गलमय सोच हैं। आपपर होनेवाला प्रभाव अनुभव मात्र से हुआ प्रभाव है। इसीलिए देवचंद्रजी महाराज ने कहा है पुद्गल अनुभव त्याग... पुद्गल का त्याग नहीं पुद्गल के अनुभव का त्याग करने का कहा है । पाँचो इंद्रियों का त्याग नहीं करना है। इंद्रियों से होनेवाले अनुभवरस का त्याग करना है ।
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हमारे भावी तीर्थंकर सर्वज्ञ के जीवन की अद्भुत दशा इस सिद्धांत को स्पष्ट करती है। भगवान महावीर के समय का एक छत्र सम्राट सबकुछ दाव पे लगाके प्रभु भक्ति कर तीर्थंकर नामकर्म के सुपात्र बन गए। फिर भी कर्मों ने फटकारा पुत्र ने ही कैद में डाला। रोज पच्चास फटके पीठ में लगाता था। फिर भी उस समय में श्रेणीक की भीतरी आनंद दशा में कुछ कमी नहीं आयी । परिस्थिति को अपने स्व के समक्ष साक्षी भाव में रखकर यहीं कहते थे अहो प्रभु! आपका मेरे पर कितना उपकार हैं। शासन का मुझपर कैसा अनुग्रह है ? इस विपरित स्थिति में भी मेरी भीतरी प्रसन्नता अखंड रहती है। इसतरह पुद्गल का अनुभव तो था पर उस अनुभव में जो पीडा का रस था वह छूट गया। परमात्मा के प्रति रही हुई प्रीती ने अनुभव के रस का त्याग करवा दिया।
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