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नमोत्थुणं सव्वक्षूणं सव्वदरिसीगं
द्रव्य के आधार से पयार्य को जानना ज्ञान हैं। ज्ञान के आधार से पर्याय को जानना दर्शन है।
सर्व द्रव्य की सर्व प्रर्यायों को जानते हैं अतः प्रभु सव्वन्नूणं हैं।
सर्व द्रव्य की सर्व प्रर्यायों को देखते हैं अतः प्रभु सव्वदरिसीणं हैं।
वस्तु के विशेष धर्म को जानने से ज्ञान साकार उपयोग है। वस्तु के सामान्य धर्म को जानने से दर्शन निराकार उपयोग है। जो स्व को जानता हैं वह सर्व को जानता है। जो स्व को देखता हैं वो सर्व को देखता हैं। जीव का प्रथम प्रयास सर्व को जानने और देखने का नहीं परंतु स्व को जानने और देखने का है। जो अप्रच्युत अर्थात अंतरहित हैं। सुयगडांग सूत्र में सर्वज्ञ के लिए अभिभूय नाणी और सर्वदर्शी के लिए सव्वदंसी शब्द का प्रयोग हुआ है। सर्वदर्शी के लिए अनंतचक्खू शब्द का प्रयोग हुआ है। अविरोध में विरोध रखनेवाला एक चक्षु होता हैं और विरोध में अविरोध देखनेवाला अनंतचक्षु होता है। भगवान महावीर ने अनंतचक्षु होकर सत्य को जाना, देखा और उसे रूपायित किया। अनंतचक्खू की तरह अणंतनाणी और अणंतदंसी भी कहा है।
नमोत्थुणं के इस पद की उपासना करते हुए गणधर भगवंत सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा के द्वारा अन्य जीवों में पूर्णज्ञान पूर्णदर्शन प्रगट करने का सामर्थ्य रखते हैं। हममें सर्वज्ञत्त्व प्रगट करने का सामर्थ्य स्वीकारने से पहले परमात्मा के सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने का विश्वास, श्रद्धा, आस्था आवश्यक है। विश्व में अनंत पदार्थ हैं। प्रत्येक पदार्थ की अनंत पर्याएं हैं। सर्व पदार्थ और सर्व पर्यायों से हम अनभिज्ञ हैं, अनजान हैं। सर्वज्ञ प्रभुको कर्मबंधनों के आवरणों से मुक्त होने कारण निरावरण अवस्था में निर्मल विशुद्ध ज्ञानदर्शन सहज प्राप्त हो जाते हैं । सर्वज्ञ प्रभु सब जानते हैं और देखते हैं इसलिए उनको हर रहस्य का बोध होता हैं । नंदीसूत्र में कहा हैं दव्वओ अनंत
वाणी सव्वं दव्वाइ जाणइ पासइ । अर्थात् षड्द्रव्यों को पूर्णतः जानते और देखते हैं । इसीतरह वे सर्व क्षेत्रों को याने खित्तओ, कालओ, भावओ सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों को जानते और देखते हैं। इस कथन को भगवती सूत्र में कथित स्कंदक परिव्राजक की घटना स्पष्ट कर देती है। भगवान महावीर
· तीर्थंकर काल के ग्यारहवे वर्ष में जब प्रभु कयंजला में बिराजमान थे तब श्रावस्ती का स्कंदक परिव्राजक भगवान के पास आया था। उन्हें देखकर भगवान ने कहा स्कंदक! तुम्हारे मन में जिज्ञासा हैं कि लोक सांत हैं या अनंत ? भगवान की ज्ञानाभिव्यक्ति जानकर स्कंदक ने कहा हा भगवन् ! मेरे मन में ऐसा हैं और मुझे उसका समाधान भी चाहिए। स्कंदक के मन का समाधान करते हुए भगवान ने कहा, लोक सांत भी हैं अनंत भी हैं। लोक एक हैं इसीलिए संख्या की दृष्टी से वह सांत हैं। लोक असंख्य आकाश में फैला हुआ है इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से वह सांत
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