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अनुभवरस को आगम में वेदन कहा है। भगवती सूत्र के सातवें शतक के तीसरे उद्देशक में कहा हैं कि कर्म का वेदन करते हैं तो निर्जरा नहीं होती पर आत्मा का वेदन करते हैं तो निर्जरा होती है। एक समय में एक जगह एक उपयोग लगता है। आत्मा का उपयोग आत्मा में जाता है तो आत्मानुभूति होती है। गुण और गुणी एककार हो जाते हैं तो उपयोग परपदार्थ, परवस्तु या परजन में नहीं जाता है। मेतार्य मुनि, गजसुकुमाल आदि उदाहरण कथन की साक्षी रहे हैं। अनंतकाल से आत्मा पुद्गल के साथ रहते हुए भी पुद्गलमय नहीं बना ऐसा तो हम समझते हैं, परंतु केवलज्ञान, केवलदर्शन यह हमारी अपनी पर्याय होनेपर भी हम सर्वज्ञ सर्वदर्शी भी तो नहीं हो पाए ।
सर्वज्ञ बनने की प्रयोगशाला का पहला नियम हैं, स्वयं को जानो । मान लीजिए कोई रेल्वे स्टेशनपर सफर के लिए पहुंचता हैं। यहाँ से दिल्ली जाने का टिकट उसने लिया हैं। ट्रेन आयी, ट्रेन में चढ गया। खाली सीट पर बैठ गया, ट्रेन चालु हुई। थोडी देर बाद टी. सी. आया टिकट माँगा । उसने जेब में हाथ डाला तो उसे पता चला कि उसकी जेब कट चुकी है। टिकट के साथ आयडेंटी कार्ड भी निकल चुका है। उसने टिसी से बिनती की कि उसने अवश्य टिकट लिया हैं... आगे आप जानते हैं इस बिनती का क्या परिणाम होता है? और वही हुआ टि.सी ने प्रश्न शुरु कर दिए। कौन हो तुम? कहाँ जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? क्या करोगे वहाँ जाकर ? आदि अनेक प्रश्न पूछेगा। इन सारे प्रश्नों को सुनकर वह प्रवासी ऐसा कोई उत्तर दे कौन हो पता नहीं। कहाँ से आये हो? पता नहीं। कहाँ जा रहे हो? पता नहीं। किस लिए जा रहे हो? पता नहीं। पुलिसवाले या टि.सी इन प्रश्नों के उत्तर सुनकर क्या ॲक्शन लेंगे आप जानते हो न ।
ऐसे ही कुछ प्रश्न हमें ज्ञानी पुरुष भी पूछते हैं । उनको ही पूछते हैं जो मुक्ति लोक की आनंद यात्रा का प्रवासी बना हुआ है। वे भी पहला प्रश्न यहीं पूछते हैं तुम कौन हो जिसे यह शरीर मिला हैं। जैसे मेरी उम्र ५२ वर्ष हैं । ५२ वर्ष से मैं इस शरीर में आयी हूँ। आनेवाला पहले मौजूद रहता हैं तो वह शरीर में आता है । मेरा देवलाली आगमन जुलाई में हुआ। उसके पहले मैं कहीं थी तब वहाँ से देवलाली आयी । इसतरह मनुष्य पयार्य में इस शरीर ५२ वर्ष हुए। उसके पहले मैं कही थी यह बात निश्चित है । जब आयी हूँ तो जाऊँगी यह भी निश्चित है क्योंकि जो आता हैं वो जाता जरुर है। इसका मतलब हैं कि मेरी सत्ता तीनों काल में हैं। भूतकाल में मैं थी, वर्तमान हूँ और भविष्य में रहुँगी । जाऊँगी तो भी रहूँगी। रहनेवाला कोंन हैं सोचो ?
आप चश्मे पहनकर किताब में लिख रहे हो । कभी इधर सुधर्मा पाठ की ओर मेरी तरफ देख रहे है। यह कौन देखता है आँख या चश्मे ? आप में से कोई कहेगा आँख, कोई कहेगा चश्मा, पर सचाई यह हैं कि न आँख देखती हैं न चश्मे इसे तो देखने वाला ही देखता हैं। शरीर में कोई हैं वह देखता हैं। उसके नहीं रहनेपर कोई नहीं देख सकता है। चाहे देह हो, आँखें हो, चश्मे हो लेकिन शरीर में इसे देखनेवाला न हो तो इसे कोई नहीं देख सकता है। अब हमें सोचना हैं इन दोनों में मैं क्या हूँ ? शरीर या आत्मा ? क्योंकि जब मृत्यु होती हैं तब एक चीज चली जाती हैं, एक चीज पडी रहती है। अब प्रश्न पूछे स्वयं को जो जाता हैं वह मैं हूँ या पडा रहता हैं वह मैं हूँ । इस प्रश्न के उत्तर का साक्षी बनना ही होगा। इस बात का निर्णय करना ही होगा। इस प्रश्न के उत्तर के लिए आत्मसिद्धि की पहली गाथा का कथन हुआ ।
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