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दो साध्वियों की मधुरस्वरलहरी वहाँ कैसे पहुंच सकती हैं? यहाँ महत्त्व शब्द का नहीं भाव का है। भाव को लेकर आयी हुई बहनों के स्वभाव का है। यहाँ महत्त्व है परमात्मा के प्रभाव का। परमात्मा के प्रभाविक और पारिणामिक पुण्य परमाणु सहज अपना मार्ग बनाने लगे। उँचाई, नीचाई, गोलाई आदि परिणाम भौगोलिक परिस्थिति के होते हैं। आत्मभावों का परिणाम अपूर्व होता है। ऐसे अनुभवों की आनंदलहरी में दोनों बहनें वापस लौटकर पहुंचने लगी प्रभु के पास । सोच रही थी जाते ही प्रभु को कहते हैं कि हम ऊपर नहीं चढ़ पाए पर आपके भाव और प्रभाव भाई म.सा. को पहुंचा दिए। सोच रही थी इतने में दुंदुभियां बजने लगी। अचरज से सोचने लगी दुंदुभी क्यों बजा? परमात्मा के पास पहुंचते ही उन्होंने धन्यवाद देते हुए कहा तुम्हारा संदेश पहुंचाना सार्थक हो गया। अभी जो दुंदुभीनाद सुन रही हो वह तुम्हारे बंधुमुनि के भगवत् प्राप्ति का नाद है। जिनके पर्वतपर बिराजनेसे प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो पाए वे बाहुबलि अब केवलि हो गए। तुम्हारे और जगत् के तीनों काल के सभी पर्यायों को वे जानते और देखते हैं। तुम्हारे सारे मानसिक विचार और आत्मभाव उनके ज्ञान में प्रगट हो गए है। हमारा तुम्हारा बाहुबलि का सांसारिक ऋणानुबंध आज संपन्न हुआ।
जिस संदेश के बारे में हम बहुत गहराई में चले गए उस संदेश में शक्ति किसमें अधिक थी। परमात्मा की जिन्होंने संदेश भेजा था? बाहुबलि की जिनके प्रति संदेश भेजा गया था? या उन भगिनी युगल की जिन्हें संदेश वहन का आदेश मिला था। परमात्मा का निमित्त बलवान था, बाहुबलि का उपदान विशुद्ध था और ब्राह्मी सुंदरी का उपयोग उत्तम था। यह संदेश निःशब्द संदेश था। जहाँ शब्द नहीं पहुंचते हैं वहाँ निःशब्दता पहुंच जाती है। बोध के दो प्रकारों में वाचिकबोध और मौनबोध ऐसे दो बोध प्रसिद्ध हैं जैसे कि भगवान महावीर ने चंदना को वाचिक और संगम को मौनबोध दिया था। बाहुबलि ने उपदेश सुनकर वैराग्य पाया। आदेश सुनकर दीक्षा ली और संदेश पाकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। आत्मसिद्धि में इसकी और स्पष्टता होती है। अनंत कर्मों के प्रकारों में आठ कर्म मुख्य हैं और आठ कर्मों में मोहनीय कर्म मुख्य है। मोहनीय कर्म के दो भेद है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। वीतरागता से चारित्रमोहनीय का और बोध से दर्शनमोहनीय का क्षय होता है। दर्शन मोहनीय के कारण अटका हुआ बाहुबलि जी का केवलज्ञान परमात्मा के बोध से प्रगट हो गया।
बोध के कई प्रकार मिलते हैं जैसे आनंदघनजी ने शब्दबोध और वासितबोध बताया। इसके अतिरिक्त भी स्वबोध, संबोध, परबोध, परमबोध, वरबोध, प्रतिबोध आदि अनेक प्रकार मिलते है। आचारांग सूत्र में ये सभी बोध तीन बोध में समा जाते है -
सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अन्नेसिं वा अंतिएसोच्चा। ___ सहसम्मुयाइयाए अर्थात् स्वमति याने अपनी बुद्धि के माध्यम से गहरा चिंतन करते हुए जातिस्मरणज्ञान से पूर्वजन्म का बोध हो जाना। जैसे राजा जितशत्रु ने अपने पुत्र के साथ तापसी दीक्षा ली थी। एक दिन उनके गुरु ने उन्हें आदेश दिया कि, “कल अमावस्या हैं अत: अनाकुट्टि है। कल के लिए आज ही जंगल से फल, फूल एवं कंदमूल ले आना।” अनाकुट्टि अर्थात् कंदमूल ग्रहण नहीं करना। यह सुनकर तापस पुत्र के मन में विचार आया
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