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कि फल, फूल एवं कंदमूल के उपभोग में दोष है तभी तो अमावस्या के दिन उपभोग नहीं किया जाता तो उसकी अगले दिन व्यवस्था करना भी तो दोष हो सकता है। अनायास दूसरे दिन कुछ श्रमण विहार करते हुए तपोवन मार्ग से निकल रहे थे। उन्हें देखकर तापसपुत्र ने कहा, "क्या आज अमावस्या के दिन भी आपकी अनाकुट्टि नहीं है, जो आप वन में जा रहे हो?” उत्तर में श्रमणों ने कहा, “हमारे लिए सदा ही अनाकुट्टि है।” इन वचनों को सुनकर तापसपुत्र सोचने लगे सदा अनाकुट्टि रहना श्रेष्ठ है । सोचते सोचते उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पूर्व जन्म में मैं देवगति में था। उससे पूर्वभव मैं श्रमण था । सदा अनाकुटि रहा था। अब भी मुझे अनाकुट्टि रहना है और आत्मशोधन करना है । अत: मैं तापसवृत्ति छोडकर श्रमणवृत्ति अपनाता हूँ। यह स्वमति परबोध कहलाता है ।
दूसरा बोध है, तीर्थंकर के उपदेश से होनेवाला आत्मबोध । जैसे मेघमुनि को परमात्मा महावीर की देशना से बोध हुआ था। देशना सुनकर वैराग्य आया और देशना सुनकर बोध पाया। संयम में विचलित होनेपर महावीर के कथन से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्व जन्म में किए गए दया धर्म के प्रभाव से इस जन्म में संयम का स्वभाव प्रगट हुआ। यह है उपदेश से होनेवाला आत्मबोध ।
तीसरा बोध है, अन्यों के समीप रहकर उपदेश सुनकर होनेवाला बोध । अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी के उपदेश से प्राप्त होनेवाला परमबोध जैसे मल्लिराजकुमारी ने अवधिज्ञान के बल से अपने विवाह के लिए आए हुए छह राजकुमारों को उपदेश दिया था । उपदेश के द्वारा पूर्वजन्मों की घटना का स्मरण कराते हुए कहा था कि, पूर्व जन्म में हम सब ने एक साथ दीक्षा ली थी और एक साथ साधना की थी। इन वचनों के बलपर छहों राजकुमारों को आत्मपरिबोध स्वरुप जातिस्मरणज्ञान हुआ था।
इन तीनों बोधों के स्वरुप से यह स्पष्ट है कि शुभ परिणामों के प्रगट होने के लिए उपदेश का आदेशमय और आदेश का संदेशमय होना चाहिए। कमठ की लकडियों में से निकले साँप के जोडे को धरणेंद्र पद्मावती का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें पार्श्वकुमार मंत्र के द्वारा बोध प्रगट करते है । बोधि के सिवा - एगो धम्मो न लभइ अर्थात् धर्मलाभ नहीं हो सकता हैं। धर्मलाभ, बोधिलाभ, समाधिलाभ और सिद्धिलाभ ये चारोंलाभ परमात्मा के
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प्राप्त होते है। परमात्मा का बोध जब देशना के रुप में प्रगट होता है तब ऐसा लगता है यह बोध सिर्फ मेरे लिए ही दिया गया है। स्वयं के अप्रगट दोष अपने बोध में प्रगट हो जाते है। अन्य किसी को इसका कोई अनुभव नहीं होता है। ऐसा प्रभु बोध का परमप्रभाव होते हुए भी परमात्मा किसी को जबरदस्ती बोध नहीं देते हैं। चाहे वे अपने पुत्र-पुत्री भाई आदि क्यों न हो। सुननेवाले की भवितव्यता मुख्य होती है।
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नमोत्थुणं सूत्र द्वारा हम परमात्मा से संपर्क करते है। एक तरह से ऐसा समझो कि नमोत्थुणं परमात्मा का संपर्क सूत्र हैं। प्रश्न होता हैं कि हम तो नमोत्थुणं के द्वारा परमात्मा का संपर्क करते हैं पर वे हमारा संपर्क कैसे करते हैं ? गणधर भगवंत इसका उत्तर देते हैं। ये चार सूत्र - जिणाणं जावयाणं, तिणाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं ये चार सूत्र आपसी संपर्क सूत्र हैं। जिताते उनको हैं जो खेलना चाहता है, जो लडना चाहते हैं स्वयं से। हार हो या जीत हमें परमात्मा चाहिए। तारते उनको हैं एक उनको जो पार तो कर गए पर तटपर आकर बैठ गए। दूसरे वे जिनका तिरना बाकी है। तिसरा उनको जो पानी से ही डरते है। उन्हें परमात्मा तीर्थ के जहाज से पार उतारते
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