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नामकर्म का परिणाम है। इसतरह तीर्थंकरों का तीर्थंकर नामकर्म अन्य के उत्थान की भावना से बंधता हैं। उदय के समय पर के द्वारा भोगा जाता है। ऐसे विचार करते समय प्रश्न होता है कि नामकर्म की यह साधना आत्मसाधना हैं या लोकसाधना? गणधर भगवंत इसका समाधान करते है। लोकाश्रित होने से यह लोकसाधना लगता है पर हैं यह आत्मसाधना। क्योंकि विशुद्ध सम्यक दर्शन, निर्मल आत्मदशा की अनुभूति, मोक्षमार्ग की आनंदयात्रा का अनुभव जैसा मुझे हो रहा है वैसा अन्य जीवों को भी हो ऐसी तीव्र अनुभूति की फलश्रुति यह नामकर्म हैं। जैसा आत्मा का आनंद मुझे है वैसा सभी जीवों को हो ऐसी मंगल अभ्यर्थना आत्मसाधना की पर्याय है ।
पुण्यमय हो या पापमय परंतु अन्य अवस्था का संपूर्ण नाश होने से आत्मा की पूर्ण पवित्रदशा का सर्वथा प्रगट हो जाना भावमोक्ष हैं। तीर्थंकर नामकर्म शुभ, पुण्यमय कर्म हैं । परमसिद्ध दशा में वह भी बाधक मानी जाती है। वैसे शुभभाव जीव की अरुपी अवस्था में होता है । वह अरुपी भाव भावपुण्य हैं। उन भावों के निमित्त से परमाणुओं का समूह स्वयं अपने उपादान के कारण आत्मा को अवगाह के रहता हैं उसे द्रव्य पुण्य कहते हैं। पुण्य आत्मा का स्वरुप नहीं हैं परंतु पर निमित्त से होनेवाला शुभ परिणाम है। इस परिणाम से आत्मा अलग है।
हमारे गुरुणीश्री उज्ज्वल कुमारीजी मथुरा के चौबे का उदाहरण देते थे। एक पूर्णिमा के रात में वे भांग का नशा कर के नदी पार करने के लिए तटपर गए। रातभर हलेसा मारकर नौका चलाते रहे। सुबह होते होते उन्हें लगा था हम दूसरे तट से बहुत नजदीक हैं, बस पहुंचने में ही है। तटपर उतरकर वापस नौका का लंगर खूंटे से बाँधने के लिए जब रस्सा ढूँढने लगे तब उन्हें पता चला कि पहले बंधा हुआ लंगर खूंटे से बंधा हुआ ही है। इसे बिना खोले ही हम रातभर हलेसा हाँकते रहें। परिणामत: हम इसी तटपर रातभर है। अध्यात्म जीवन में मुक्ति प्राप्ति के प्रयास हमारे करीब इसीतरह के है । हम अध्यात्म का प्रयास तो करते हैं परंतु हमारा चेतना का लंगर संसार के खूंटे से बँधा हुआ होता है। मुत्ताणं मोयगाणं आते हैं हम से पहले लंगर खोलने का कहते हैं। कभी हम खोलते हैं तो कभी हम सिर्फ नाटक करते हैं। जबतक हमारा मन इन बंधनों से मुक्त होने का नहीं करता हैं तब तक मुक्ति के प्रयास व्यर्थ
है।
हम ज्ञानी पुरुषों से मुक्त होने की प्रार्थना तो करते हैं परंतु उनके कथन को मानते नहीं है। बंधन बाँधते ह हैं और उन्हें खोलने की बिनंती हम परमात्मा को करते हैं। बाँधा हमने तो भला भगवान इसे क्यों खोलेंगे? मुक्ति के प्रयास पूर्व हमें इन बंधनों को खोलने का प्रयास और प्रयोग दोनों करने होंगे। एकबार एक कुम्हार कुछ गधों को लेकर जंगल से गुजर रहा था। शाम होते होते अंधेरा देखते देखते घबराने लगा। जंगल में अकेला क्या करूंगा। चिराग न रोशनि। गधे भी इधर उधर बिखर जाऐंगे। इतने में दूर दूर एक कुटिया दिखाई दी। कुम्हार पहुंचा उस कुटिया की ओर भीतर झाँका एक संत बिराजमान थे। कुटिया में भीतर गया। संत से कहा, रोशनि के लिए चिराग दीजिए। संत ने कहा, भीतर झाँक चिराग तेरे भीतर ही हैं। बाहर के चिराग और बाहर की रोशनि से क्या करना हैं। ऐसे चिराग तो कई बार जला चुका तू। अब भीतर आजा। भीतर का चिराग जला दे । बिच्चारा कुम्हार माथा ठोककर संत से कहता हैं, गधों को लेकर घूमता हूँ शिष्यों को लेकर नहीं। उनकी सुरक्षा के लिए मुझे बाहर का ही चिराग
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