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परमाणु दृष्टि से, गुण दृष्टि से, स्वरुप दृष्टि से आत्मा शुद्ध हैं परंतु परवृत्ति के निमित्तदृष्टि से अवस्थादृष्टि से आत्मा समयमात्र के लिए मलीन भी होती है। व्यवहार में से आत्मा अशुद्ध है परंतु मैं पूर्ण शुद्ध हूँ। वर्तमान में आयी मलीनता की पर्याय को सर्वज्ञन्याय से छोडना है। युद्ध में जाते ही शत्रु पक्ष में से उसका आव्हान किया गया। उन्होंने अपना नियम दर्शाया। शत्रु ने सुनकर उपहास किया और बाण चलाया। वरुण सुभट की छाती में चार इंच गहस बाण चुभा। युद्ध के नियम के अनुसार उसने भी शत्रु के उपर वार किया। तुरंत ही वह मर गया। मरते हुए शत्रु को भी वरुण ने समाधि करवाई। बाण दोनों को भी लगा था पर वरुण जीवीत था क्योंकि छद्मस्थ जीवको सातवे, आठवे, नववे, दसवे किंवा बारहवे गुणस्थान के स्वरुप में अखंड उपयोग स्थिर होता है तब तक मृत्यु नहीं होती हैं। वापस छठे गुणस्थानक में आता हैं तब मृत्यु होती हैं। वरुण सुभट नदी के तटपर आता हैं और समाधि मरण से मृत्यु को प्राप्त होता है। एकावतरी होने से उसने सिद्ध पद की प्राप्ति का पथ पाया। अशुद्ध अवस्था का सर्वथा संपूर्ण नाश होने से आत्मा की पूर्ण पवित्र दशा का सर्वथा प्रकट हो जाना भावमोक्ष है।
भगवान ऋषभदेव ने ९८ पुत्रों से यही कहा था कि पौद्गलिक परमाणुओं से खचित राज्य का शासन क्यों मांगते हो? स्वयं को देखो स्वयं को जानो स्वयं को जीतो स्वयं के शास्वत स्वरुप पर शासन करो। लडते लडते तो तुम समाप्त हो जाएगे। सबकुछ रहेगा तुम नहीं रहोगे। युद्ध करो तो समझकर करो। जीतो तो समझकर जीतो । यदि जीत को समझा नहीं तो जीत भी हार ही होती है। जीव संसार में आता हैं तरह तरह के खेल करता हैं। हारता है जीतता हैं। जिता है मरता है चला जाता है। इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन से पूछा था कि बोल, रथ कैसे चलाउ जिससे तेरी जीत हो? मैं तो सारथी हूँ तेरे रथ का। तू जिस दिशा में कहेगा जैसा कहेगा वैसा और वहाँ रथ ले जाऊंगा। तब अर्जुन ने कहा, महाराज! रथ जैसा चलाना हो वैसा चलाओ। जहाँ ले जाना हैं वहाँ ले जाओ। जितुंगा तो जीत आपकी, हारूंगा तो हार आपकी। जहाँ ले जाओगे, जिसके सामने खडा करोगे वह मैं लडूंगा। सोचिए आप कृष्ण ने क्या कहा होगा? गाडीमालिक की मर्जी से चलती हैं या ड्राइव्हर की?
परमात्मा महावीर ने देवानंदा के गर्भ में जन्म लिया परंतु उनको जन्म दिया त्रिशला माता ने। क्योंकि ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेनेवाले को क्षत्रिय जाति जितनी जीतने की वृत्ति और क्षमता नहीं होती है। क्षत्रिय मागने के लिए तैयार नहीं होता है वह जीतकर लेने में ही खुश रहता है। वह कुछ भी पाने के लिए संघर्ष करता है परंतु किसी की मेहरबानी का इंतजार नहीं करता। देखो ना गौतम स्वामी ने कहा संघर्ष किया? बार बार भगवान के पास स्वयं के ज्ञान की और मोक्ष की याचना और चर्चा करते रहे।
आत्मा में चेतना नाम का गुण हैं। उसकी मुख्य दो शक्ति हैं। दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना। दर्शन चेतना गुण का लक्षण है सामान्य सत्ता मात्र का अवलोकन करना। आत्मा जब स्वयं के त्रिकाली स्वरुप के सन्मुख होता है उस समय उत्कृष्टतारुप स्वभाव जिसे स्व पर का भेद रुप बोध नहीं हैं परंतु स्व स्वभाव का निर्विकल्प रुप देखता हैं। दर्शनचेतना का विषय निर्विकल्प और निराकार सामान्य हैं। ज्ञान चेतना सविकल साकार विषय है।
चेतना के स्वरुप को जानकर उसके परिणाम पाये जाते हैं। जैसे आम की गुठली कच्ची खाओ तो कटु लगती हैं। उसको बोयी जाए तो उगती हैं आम बनता हैं और वह आम पहले खट्टा फिर मीठा होता है। उसी गुठली
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