Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

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Page 216
________________ खलुदुल्लहं भाव युद्ध दुर्लभ है। साध संग्राम हैं, रात दिन जुझना जंत पर तंत का जोरभाई। जंत अर्थात् योगसाधना। साधना के समय में तंत्र अर्थात् कर्म। उसका जोर चलता है। उपवास करते हैं तो भूख लगती है, ध्यान करते हैं नींद लगती है। भीतर को भेदना है। भीतर ही भगवान है। अंदर परमरस का झरणा बहता है उसका पान करना है तो भीतर तक जाना ही है। भीतर का स्वरुप बताते हुए कहा है - बिनुपगनिरत करो तह । बिनुकरदै तारी। बिनु नैनन छवि देखना। बिनु सरवन झणकारी। उस भीतर को बिना पाँव से पार कराता है। बिना हाथ दिए तारता है। आँखों के बिना दर्शन कराता है। बिना कानों के श्रवण कराता है। ऐसे ही परमस्वरुप के लिए युद्ध करना हैं। भीतर पहुंचना है, भीतर को पाना है। यही सच्चा संग्राम है। ___जीव दो प्रकार के कहे है - कर्मदृष्टिवाले और आत्मदृष्टिवाले। यहाँ युद्ध का तात्पर्य शुद्धआत्मस्वाभाव को भूलकर केवल कर्मदृष्टिवाले बनकर कर्मों से लडते रहना नहीं है। यहाँ पुरुषार्थ करना हैं आत्म स्वभाव प्रगट करने का। देव गुरु धर्म और वीतरागवाणि के प्रति पूर्ण श्रद्धा के साथ रहकर इस प्रवृत्ति के रुकावट में बाध्य कर्मों के साथ युद्ध करना हैं। बुज्झिज्जइ, तिउट्टिज्जइ पहले आत्मा को जान कर्म को जान फिर उसे तोडने का प्रयत्न कर। ज्ञान को प्रज्ञाक्षिणी कहा है। प्रज्ञाक्षिणी के द्वारा कर्म और स्वभाव को जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा द्वारा कर्मकषायों के उपर विजय पाना है। कर्मों से हारकर बैठे नहीं रहना है। उससे जुझना है। मान लीजिए आपने उपवास किया है और भूख लग जाय तो क्या करना चाहिए? ध्यान या माला करते समय निंद आने लगे तो क्या करना चाहिए? भगवान महावीर को छद्मस्थ ध्यान में नींद आयी थी। तब भगवान चद्दर ओढकर सो नहीं गए पर चंकमाणे अर्थात् घूमने लगे। चक्कर लगाकर स्वध्यान करते रहे। जीत पाने के लिए लडना पडता है। स्थिति का स्वीकार नहीं चलता। केवल अपने घर में आए दुश्मन को बाहर निकाल देना विजय नहीं साहस है। विजय तो उसे कहते हैं दुश्मन की मर्यादा में प्रवेश कर कुछ उपलब्ध कर लेना कुछ हासील कर लेना। पश्चाताप, प्रायश्चित्त आदि द्वारा कर्मों को बहुत दूर दूर तक भगाकर उसकी मर्यादा का छेद भेद कर देना आत्मविजय है। इसीलिए भगवान ने कहा है अप्पणामेव जुज्झाहि । तीर्थंकर देव स्वयं के बल से जुझते हैं। स्वयं की शक्ति से सब सहन करते हैं। जिनकी आँख की भृकुटी से इंद्र के सिहांसन प्रकंपित होते हैं। जो तीन भवन को विचलित कर सकते हैं जो समस्त विश्व का रक्षण कर सकते हैं ऐसे प्रभु स्वयं की रक्षा के लिए इसबल का प्रयोग नहीं करते हैं। भगवान महावीर को साडे बारह वर्ष में कितने उपसर्ग आये परंतु परमात्मा ने किसी भी उपसर्ग के विरोध में अपने बल का उपयोग नहीं किया। केवलमात्र कर्मक्षय कर कैवल्य प्राप्त करने के लिए अपने बल को सुरक्षित रखा। भगवती सूत्र में वरुणनाग नटुआ का वर्णन आता हैं। जो चेडा राजा के सुभट थे। वे छट्ठ छट्ठ के पारणे करते थे। महाराजा ने उन्हें दूसरे उपवास के दिन युद्ध में जाने का आदेश दिया। उन्होंने तुरंत ही तीसरा उपवास पचख लिया साथ ही उन्होंने नियम लिया जब तक शत्रु पक्ष की तरफ से मुझपर बाण नहीं आएगा तब तक मैं किसी को बाण नहीं मारूंगा। युद्ध क्षेत्र में भी वे शांत चित्त से खडे थे। वे जानते थे कि द्रव्यदृष्टि से, तत्त्वदृष्टि से, 214

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