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हुए मुनि और उनकी आहारचर्या देखते देखते भगवत् स्वरुप प्राप्त किया था। मुनि मासतुष ने मासतुष शब्द के मंत्रमात्र से केवलज्ञान पाया था। नेमिनाथ भगवान के समवसरण में महान अभिग्रहधारी ढंढणमुनि ने आहार में प्राप्त लड्डुका चूर्ण करते हुए परमपद प्राप्त किया था। नवदीक्षित गजसुकुमाल के भगवत् स्वरुप पाने में श्वसुर सोमिल ब्राह्मण निमित्त रुप बना था।
चतुर्थ अप्रतिष्ठित विजय । यह विजय किसी अन्य के द्वारा प्रतिष्ठित नहीं की जाती। स्वयं ही अनायास किसी भी सामन्य निमित्त से विजय प्राप्त कर लेते है। जैसे ऐवंतामुनिने स्वयं ही खेलते खेलते गौतम स्वामी को देखा, अंगुलि पकडकर भिक्षार्थ अपने घर ले गए, बाद में स्वयं ही परमगुरु गौतमस्वामी के साथ भगवान के समवसरण में गए, दीक्षित हुए, प्रात:काल स्वयं ही पात्रि को पानी में तैराते हैं और स्वयं ही पश्चात्ताप कर परमविजय स्वरुप परमार्थ स्वरुप भगवत् स्वरुप पूर्णज्ञान को प्राप्त करते हैं।
आत्मा के शत्रु कषायादि को परमशत्रु और उसपर पानेवाली विजय को परमविजय बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में केसी श्रमण के द्वारा गौतमस्वामी को पूछा गया था कि आप हजारों शत्रुओं के बीच भी आराम से निर्भिक होकर रहते हो ऐसा मुझे अनुभव होता है। दुर्जेय उन शत्रुओं को आपने कैसे जीता, ऐसे मेरे इस संदेह का समाधान करो। गौतमस्वामी ने कहा अजेय ऐसा एक आत्मा ही महानशत्रु हैं। उसको जीत लेने से चार कषाय अर्थात् पाँच और पाँच इन्द्रिय इन दस को जीतने से हजारों शत्रु स्वयं ही जीते जाते हैं। एक को जीतने से पाँच जीते जाते है। पाँच को जीतने से दस जीते जाते है। एगे जिए जियापंच, पंच जिए जियादस। इसतरह एक आत्मा को जीतने से पाँचजीते जाते हैं और पाँच को जीतने से दस जीते जाते है, दस को जीतने से हजार जीते जाते है। युद्ध में हजार को जीतनेवाले ने यदि स्वयं को नहीं जीता तो वह पराजीत सा है।
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ। जिसने हजारों शत्रुओं को जीत लिया हो परंतु जिसने स्वयं को नहीं जीता वह पराजय का अनुभव करता है। हजारों हजार शत्रुओंवाले संग्राम में एक आत्मा को जीतनेवाले की सदा परमजय है। ऐसी परमजय को प्राप्त करने के लिए आनंदघन महाराजजी ने काललब्धि को महत्त्वपूर्ण बताते हुए आत्मजय का मार्ग कहा है। लब्धि के पाँच प्रकार हैं । करणलब्धि, उपशमलब्धि, क्षायिकलब्धि, देशनालब्धि और काललब्धि ।
आत्मा के ऐसे शुभ प्रभाव होते हैं कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को अंतर्मुहूर्त कालतक ऐसी दबाकर रखता हैं कि तात्पर्यंत कोई भी प्रकृति उदय में नहीं आ सकती हैं उसे उपशमलब्धि कहते हैं। मिथ्यात्व कषायादि मोहनीय प्रकृतियों के क्षय कर देना क्षायिकलब्धि हैं। कोई महापुरुष पारिणामिक देशना प्रदान करते है तो उसे देशकालब्धि कहते है। मुनि नंदीषण को देशनालब्धि प्राप्त थी। वैश्यागृह में रहकर रोज दश आत्माओं को देशना सुनाकर परमात्मा के पास दीक्षा दिलाते थे।
___ काल की परिपक्वता से जीव को धर्म प्राप्त होना काललब्धि कहलाता हैं। ८४ हजार काल बीतनेपर श्रेणीक महाराजा पद्मनाभनाम के तीर्थंकर होंगे और धर्मतीर्थ की प्रवर्तना करेंगे। जिस तीर्थ के आलंबन से अनेक