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जीत के चार प्रकार हैं - स्वप्रतिष्ठित जीत अर्थात् स्वयं की स्वयं के उपर जीत । स्वयं ने स्वयं को स्वयं के द्वारा स्वयं के लिए स्वयं के विकारोंको स्वयं से स्वयं में जीत लेना स्वप्रतिष्ठित विजय हैं। इसे षट्स्थानक विजय कहते हैं। इसमें निमित्त उपादान, प्रेरणा या उपदेश की आवश्यकता नहीं होती हैं। ऐसी विजय स्वयं संबुद्ध तीर्थंकरों को होती हैं। जन्म से ही इन में विजय के दर्शन होते हैं। चाहे वे बालक क्रीडा करते हुए वर्धमान महावीर क्यों न हो । आपने तीर्थंकर चरित्रों में पढा होगा चढाईकर आया हुआ दुश्मन तीर्थंकर पुत्र के जन्म के साथ भग जाते है। स्वचक्र परचक्र के भय समाप्त हो जाते है। स्वयं जीतते हैं और अन्य को भी जीताते हैं इसलिए तीर्थंकरों की इस विजय को स्वप्रतिष्ठित विजय कहते है ।
दूसरा हैं परप्रतिष्ठित विजय । यह विजय पर निमित्त से प्राप्त होती है। विजय हमारी हो पर अन्य हमें सहयोग प्रदान करें। सहयोग शब्द का प्रयोग लोकप्रयुक्त शब्द है । अध्यात्म क्षेत्र की विजय में इसे अनुग्रह कहते हैं। भगवान महावीर को जीतने के लिए आए हुए गणधर स्वयं भगवान से जीते गए । बिना पराजय की यह जय दोनों पक्ष की प्रसन्नता का कारण बन जाती है। न युद्ध न पराजय फिर भी जय ऐसी यह विजय पर प्रतिष्ठित विजय हैं। महाराजा उदयन सिंधु सौवीर देश के ३६३ गाँव के स्वामी थे। जिस समय उन्हें अनुभव हुआ सिद्ध समान सदा पट मेरो, मेरा पट सिद्ध समान हैं। मैं सिद्ध भगवान का श्रावक हूँ। किसी संसारी पिता का पुत्र नहीं । स्वयं सिद्ध भगवान का पुत्र हूँ। पौषध शाला में पधारे। अपनी संपूर्ण राज्य समृद्धि अपने पुत्र अभिच को नहीं देते हुए अपने भानजे केशी को दिया । पुत्र को जब समकीत हुआ तब उन्होंने भावना भायी थी कि उदयन सिद्ध के सिवा अन्य सभी सिध्धों को मेरे नमस्कार हो। ऐसी भावना के कारण उन्होंने समकीत का वमन किया और मिथ्यात्त्व में आ गए। मनुष्य का आयुष्य पूर्ण कर वे असुर कुमार देव के रुप में उत्पन्न हुए। एक सिद्ध की अशातना से अनंत सिद्ध की अशातना हो जाती है। राजा का उदायन का उपादान शुद्ध था परमात्मा पूर्व प्रदेश मे थे और सिंधु सौवीर पश्चिम प्रदेश में था। भगवान महावीर को निमित्त बनकर राजा के पास आना ही पडता है। भगवान ने ज्ञान में देखा अनंतानुबंधी आदि ग्यारह प्रकृति को जीतकर राजा जग चुका है। पहला शब्द बोला धम्मो उसके बाद राजा को कहा स्वभाव में आ जाओ। ऐगो में सासओ अप्पा । निमित्तने उपदान को मार्गदर्शन किया। राजा की आत्मा ने प्रथम शुद्ध दशा और बादमें सिद्ध दशा को प्राप्त किया।
तीसरी विजय उभय प्रतिष्ठित विजय हैं। इस विजय में स्वयं के साथ अन्य का भी नैमित्तिक सहयोग निर्मित रहता है। शास्त्रों में कुछ ऐसे साधकवर्ग के सिद्धदशा प्राप्त साधकों का वर्णन मिलता है। जैसे साध्वी मृगावती को द्रव्य के रुप में भगवान महावीर, क्षेत्र के रुप में समवसरण, काल के रुप में सूर्य और चंद्र की समवसरण में एकसाथ उपस्थिति और भाव से भगवत् देशना निमित्तरुप सहयोगी बने थे। साध्वी मृगावती के भगवत् स्वरुप प्राप्त कर लेनेपर गुरुवर्या साध्वी चंदना जी के केवलज्ञान में वहीं निमित्तरुप बनी। इसीतरह साध्वी पुष्पचुला, चंडरुद्राचार्यादि आपसी सहयोग से परमविजेता बन परमेश्वरपद प्राप्त कर चुके। कईबार शब्दरुप आदि इंद्रियजन्य सहयोग भी अतिन्द्रिय सफलता में साधनरुप रहे है । जैसे इलायची कुमारने दोरी पर नृत्य करते
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