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अतिमुक्त कुमार श्रमण कितने भव करने के बाद सिद्ध होगा ?” परमात्मा ने कहा, संसार समुद्र है, शरीर नौका है, जीव नाविक है, महर्षिलोक इसे पार कर लेते है ।
सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चई नाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥
आर्यो ! यह अतिमुक्त मुनि प्रारंभ में ही आत्मस्थिति को भली भाँति जान चुके है । पूर्वजनित कर्मों के कारण इनकी यह बाल चेष्टा है । प्रथम मुलाकात में ही इन्होंने गणधर गौतम स्वामी को “के णं भंते. तुब्भे ? किंवा अडह ? कहि णं भंते! तुब्भे परिवसह ?" आप कौन है ? किसलिए घूम रहे हो ? आप कहां रहते है ? प्रश्न सुनकर मुनि गौतम ने अतिमुक्त की आंखों में झाँका था यह सोचकर कि ऐसा प्रश्न मुझे कौन पूछ सकता है । मेरी आत्मा या मेरे परमात्मा । मै कौन हूँ? इसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैने प्रभु की शरण ली है। मै यही तो ढूंढ रहा हूं । अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण करने वाला मै यही तो नहीं जानता हूँ कि मै कौन हूँ ? क्यों परिभ्रमण कर रहा हूँ ? इन्हीं प्रश्नोंने मुझे झकझोरा है । "कोऽहं नाऽहं सोऽहं” ये मेरे साधना सूत्र है । परमात्मा के द्वारा प्रदत्त त्रिपदि से निर्मित आचारांग सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम उशक में ही “सोऽहं” की साधना का मंगलाचरण हुआ है ।
गौतम स्वामी के साथ के इस सत्संग में अतिमुक्त के जीवन में मोक्ष का मंगलाचरण हो गया । इसी मिलन में अतिमुक्त के सिद्धत्त्व का शिलान्यास हो गया । यही खेल की नौका अतिमुक्त के लिए “तिण्णां तारयाणं” का साधन बन गयी। साधक के तीन शाश्वत प्रश्नों के उत्तर अतिमुक्त के लिए वरदान बन गए।
हमारा कल का विषय था जिण्णाणं - जावयाणं। जीतनेवाले और जितानेवाले परमात्मा ने कहा तू एक को । एक को जानले, स्वयं को जानले, स्वयं को जीतले । परमात्मा का यह संदेश सुनकर हम स्वयं को जानने लगे। स्वयं को देखने लगे। स्वयं मे खो गए। स्वयं मे लीन हो गए। गहराई मे चले गए। सागर वर गंभीरा...... अहा! हा ! समुद्र की तरह गंभीर हो गए। बस! इतने में ही किसीने धक्का दिया। गिर पडे नीचे अथाह समुद्र में। हमें कौन धक्का दे सकता है ? हमें किसने धक्का दिया ? जिनेश्वर के ध्यान में बैठे हुए हमें कौन धक्का दे सकता है ? धक्का दिया जाता है या धक्का मारा जाता है ? गुरु शिष्य को संसार में से धक्का देता हैं। शत्रु शत्रु को शत्रु समझकर धक्का मारता है। धवल शेठने श्रीपाल को धक्का मारा था क्योंकि धवल श्रीपाल का गुरु या परमात्मा नहीं दुश्मन था ।
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आप में से कई लोगोंने स्वीमींगपूल की प्रेक्टिस की होगी। प्रेक्टिस नहीं भी की होगी तो भी पता होगा कि, पहली बार देखा जाता है हमें अनुभव होता है कि हम इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ और अनजान है। दूसरी बार जाना जाता है। तीसरी बार सीखा जाता है और अंत में किया जाता है। देखना तो आसान है। देखने में कोई प्रतिक्रिया नहीं
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