Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ दर्शनावरणीय दर्शनशक्ति का आवरण करता है। मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यकदर्शन और चारित्र्य शक्ति का घात करता है। अंतरायकर्म आत्मा की वीर्यशक्ति को बाधित करता है। इन चारों घातिकर्मों का पूर्णक्षय होनेपर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट होता है। तात्त्विकरुप से यह प्रक्रिया कठिन होते हुए भी शास्त्रों के उदाहरण से यह अत्यंत सहज हो जाती है। गुरुमाता के उपालंभ की अनुमोदना करते हुए मृगावती को रात्रि के कुछ ही पलों में केवलज्ञान हो गया। गुणसागर विवाह के मंडप में बैठे बैठे केवली हो गए। वर बनते बनते अप्पडिहयवर बन गये। पृथ्वीचंद्र को राजसिंहासन पर बैठे बैठे केवलज्ञान हो गया। चार चार प्रकार की हत्या करनेवाले दृढप्रहारी ने अचानक कैसे चार कर्मों का क्षय कर लिया होगा। सातवीं नरक में जाने का नक्की करते करते प्रसनचंद्र राजर्षि क्षणभर में केवली हो गए। देखीए दादी-पोते की जोडी। दादी को हाथी के हौदेपर और पोते को शीशमहल में केवलज्ञान होता हैं। अप्रतिहत केवलज्ञान-दर्शन के धारक परमात्मा में दसअनुत्तर विशिष्टताएं उत्पन्न हो जाती हैं। अनुत्तर अर्थात् जो सर्वोत्कृष्ट होती है। जिससे बढकर अन्य कोई वस्तु नहीं हो सकती। ये अनुत्तरताए स्थानांग सूत्र में दस प्रकार की बताई हैं। १) अनुत्तर ज्ञान :- ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान से बढकर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। २) अनुत्तर दर्शन :- दर्शनावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से केवलदर्शन उत्पन्न होता है। केवलदर्शन से बढकर कोई दर्शन नहीं है। ३) अनुत्तर चारित्र :- चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से अनुत्तर चारित्र यानी यथाख्यात चारित्र उत्पन्न होता है। ४) अनुत्तर तप केवली के शुक्लध्यान रुपअनुत्तर तप होता है। ५) अनुत्तर वीर्य वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय से अनन्त अनुत्तर आत्मिक शक्ति प्रकट होती है। ६) अनुत्तरक्षान्ति :- मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से अनुत्तर क्षमा उत्पन्न होती है। ७) अनुत्तर मुत्ति :- उत्कृष्ट निर्लोभता का गुण मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है। ८)अनुत्तरमार्दव :- उत्तम मृदुता का गुण मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है। ९) अनुत्तरआर्जव :- उत्कृष्ट सरलता का गुण माया-कपट का सर्वथा अभाव होने से प्रकट होता है। १०) अनुत्तर लाघव :- घाति कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण संसार का, कर्मों का या जन्म-मरणादि का बोझ नहीं रहता। मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से अगुरूलघु गुण उत्पन्न होता है। अब हम अप्रतिहत ज्ञान दर्शन की प्राप्ति के उपायों के बारे में सोचते हैं। कैसी होती हैं केवलज्ञान की प्रक्रिया ? इसे प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना होता हैं? शास्त्र और उदाहण के स्तरपर यह स्पष्ट हैं कि विभिन्न उपायों के द्वारा साधकोंने मोहनीय कर्म का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। वे साधक जिनका पूर्वजीवन राजकीय 207

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256