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अधर रखा था। खरगोश ने ढाई दिन तक हाथी के प्रति शुभ भावों को अप्रतिहत रखा था। अकडा हुआ पाँव जमीन पर रखते रखते हाथी के भावों में हलका सा अकडापन तब आया जब वह गिर पडा। शरीर भी गिरा भाव भी गिरा। उसने पुनः भाव को सम्हाल लिया। खरगोश वनमंडल के और हाथी के देह मंडल से बाहर निकला दूर भी गया परंतु उसका भाव मंडल अविरल अखंड रहा। भावों ने हाथी को पुनः झकजोरा। हाथी में की गई दया अनुकंपामें बदल गई। हाथी के अनुकंपा भाव और खरगोश का शुभभावोंने मिलकर हाथी को भव दिया। भव काटने का अनुभाव दिया। अब सोचिए कि हाथी ने खरगोश पर अधिक उपकार किया कि खरगोश ने हाथीपर? प्रश्न का उत्तर आपके आत्म भावों में भाओगे तो आप भी भाव पाओगे और अनुभाव का अनुभव करोगे।
ज्ञानी पुरुषों को विश्व के समस्त जीवों के जीवत्त्व में छीपे हुए अनंत गुण दिखाई देते हैं। सभी जीवों के प्रति सक्रिय हितभाव यहीं महापुरुषों के ज्ञान की विश्व को अपूर्व भेंट है। पूर्णज्ञान दर्शन के धारक होने के कारण परमात्मा स्वयं उपाधि रहित होते हैं और अन्य जीवों को भी उपाधिरहित करते हैं। आचारांग सूत्र में प्रश्न पूछा गया हैं कि किमत्थ उवाहि पासगस्स? णत्थि क्या द्रष्टा को कोई चिंता, उपाधि होती हैं? उत्तर में कहा हैं, नहीं होती हैं। केवलज्ञान से पूर्व राज्य का त्याग करके चित्त के प्रसनभाव में ज्ञाताद्रष्टाभाव का स्वीकार कर प्रसन्नचंद्र राजा दीक्षित हो गए। क्या करते थे ध्यान में? कौनसी प्रक्रिया थी ध्यान की ? क्या माध्यम था? स्वयं ही स्वयं के माध्यम थे। स्वयं में स्वयं से स्वयं की पक्रिया थी स्वयं में रहने की। स्वयं ही करते थे स्वयं का ध्यान। अचानक ही स्वयं का बोध हट गया। स्व से हटते ही अन्य प्रगट हो जाता है। अन्य जब भी स्व में आता है स्व का अन्य के साथ युद्ध प्रारंभ हो जाता है। ऐसा यह युद्ध था प्रसन्नचंद्र राजर्षी के साथ। श्रेणीक के पूछनेपर भगवान महावीर ने कहा कि यदि इस समय इसका आयुष्य पूर्ण हो तो यह नरक में जाएगा। परंतु राजर्षि को अचानक अन्य की उपस्थिति का बोध हो गया। अन्य को हटाकर पुनः स्व में लौटे। त्वरीत परिणाम उत्पन्न हो गया। पूर्णज्ञान दर्शन प्रगट हो गया। राजा आश्चर्य से प्रभु की ओर देखने लगा। भगवान ने कहा, प्रसन्न का भीतर शुद्ध हो गया अत: वह बुद्ध हो गया। पर्यायोंपर से भाव हट गए। शुद्ध आत्म द्रव्य स्वतंत्र और शाश्वत है। उसका बोध हो गया। आत्मा विशुद्ध हो गया। कर्मदल हट गए और ज्ञान दर्शन प्रगट हो गए।
__ अप्रतिहतज्ञान - दर्शन केवलज्ञान के पास चौदहपूर्व का ज्ञान बिंदु समान हैं। वैसे ही चौदहपूर्व का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। केवलि भगवान भी श्रुतज्ञान के बल से उपदेश देते हैं।। श्रुतज्ञान के बल से लोकालोक को देखते हैं। पर केवलज्ञान हेतु भीतर आना पडता है। केलज्ञान आत्मा का स्वभाव है और वह आवरण हटने से होता है। उसके साधन दो होते हैं ज्ञान और ज्ञानी। साडेनव पूर्व के साधक अभव्य होने के कारण एकेन्द्रिय हो गए। अनपढ ऐसे मासतुसमुनि ज्ञानी के सानिध्यसे और ज्ञान की जिज्ञासा होने से केवलज्ञानी हो गए।
अब हम केवलज्ञान की स्थिति के बारे में सोचते हैं। घातीकर्मों के क्षय से केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है। विश्व में रहे हुए रुपी अरुपी सर्व पदार्थ जिस ज्ञान से जाने जाते हैं उसे केवलज्ञान कहते हैं और आत्मा के द्वारा इन सब पदार्थों का होनेवाला दर्शन केवलदर्शन हैं। अप्रतिहत शब्द तीन शब्द का समूह है। अ+ प्रति + हत =
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