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३) पत्थए पर आगे बढता हैं। पत्थए अर्थात् प्राप्त करने की अभिलाषा, प्रार्थना, इच्छा ।
४) मणोगए अर्थात् भाव जब उपरोक्त तीनों रूपों में परिणमित हो जाते हैं तब वह मनोगत होना
कहलाता हैं।
५) संकप्पे अर्थात् संकल्प और दृढता के साथ यात्रा में आगे बढा जा सकता है।
संकल्प हमारे भीतर की दशा हैं। संसार बाहर होता हैं। विभाव भी बाहर होता हैं। स्वभाव केवल भीतर हैं। वहाँतक हमें पहुंचना होता हैं। अज्झतिथए से शुरु होती हुई यह यात्रा संकल्प द्वारा प्रतिष्ठान तक ले जाती हैं।
अंत में गणधर भगवंत के अनुग्रह से हमें अपना परमात्मारुप द्वीप दिखाई देता हैं तब हम प्रभु चरणों में नमस्कार करते है। प्रभु कहते हैं, वत्स ! तू स्वयं द्वीप हैं। तू स्वयं का और अन्य का रक्षण करने में समर्थ हैं। तू स्वयं को जान ले। पहचान ले। तेरे सामर्थ्य को समझले । अन्य भी कई जीवों का रक्षण करने में और शरण देने में तू समर्थ हैं। तेरी शाश्वत सत्ता को प्रगट कर । सिद्धत्त्व की अनुभूति कर ।
द्वीप की साधना से जो शांति के परिणाम प्रगट होते हैं उस आनंद की अनिर्वचनियता व्यक्त करना अशक्य है। गणधर भगवंत कहते हैं द्वीप रक्षण करता हैं। शरण देता है और प्रतिष्ठान तक ले जाता हैं । पहुंचते पहुंचते वह एक अप्रतिहत ज्ञान दर्शन का धारक बन जाता है। कल हम मिलते हैं अप्रतिहत ज्ञानीदर्शनी से और उनके आत्मानुभव का आनंद लेते है ।
नमोत्थुणं दीवोताणं सरणगइपइट्ठाणं .. नमोत्थुणं दीवोताणं सरणगइपइट्ठाणं. नमोत्थुणं दीवोताणं सरणगइपइट्ठाणं.
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