Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

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Page 204
________________ अंतिम प्रयास करते हैं और कबूतरों को पुन: उडाते हैं। वैसा ही किया। शाम हुई, सूर्य ढला, अनाज पानी पूरी तरह खत्म हो चूके थे। साथी धेर्य खो बैठे थे। पर कोलंबस बस अपने लक्ष्य की ओर आरुढ थे। शाम गुजर गई पर कबूतर न लौटे। ठहाका मारकर उन्होंने साथियों को उठाया, धेर्य न खोओ, सुबह तक हम किसी अच्छे पडाव तक पहुंचेंगे। और वही हुआ। भूखे प्यासे यात्री सुबह होते होते अपने को एक अच्छे द्वीप की ओर पहुंचते अनुभव करने लगे। वह भूखंड था अमेरिका। ऐसी यात्राओं में कबूतरों को इसलिए छोडा जाते हैं कि वे नजदीक द्वीप हो तो चुग्गा लेकर वहींपर बसेरा कर लेते हैं। यदि कोई द्वीप न मिले तो वे उड उडकर जहाजपर वापस लौट आते हैं। नमोत्थुणं जहाज हैं। परमात्मा द्वीप हैं।पहुंचना द्वीप पर हैं। द्वीप से तटपर पहुंचना हैं। द्वीप से तटपर पहुंचाने का उत्तरदायित्व द्वीप का है। तट मोक्ष हैं। जब तक द्वीप नहीं मिलता हैं तब तक जहाज को नहीं छोडना चाहिए। यहाँतक की कुछ कथाओं में आपने सुना होगा कि आँधी तूफान में जहाज कभी चट्टानों से टकरा भी सकता हैं। टूट भी सकता हैं। प्रज्ञा संपन्न यात्रि तब भी जहाज को नहीं छोडते। जहाज का टूटा हुआ हिस्सा भी उसे द्वीप तक पहुंचा सकता हैं। इस विश्वास के साथ वह अपनी यात्रा को आगे बढाता हैं। नमोत्थुणंरुप जहाज से हमें परम के द्वीप तक पहुंचना हैं। मुक्तितट को पाना हैं। कर्मों के चट्टानों से टकराकर कभी मंत्र बिखर भी गया तब भी मंत्र का सामर्थ्य अकबंध हैं। आपने सुना होगा कि एक शेठ ने अपने नौकर को उसकी इच्छा से नमो अरिहंताणं मंत्र सिखाया था। वह मंत्र भूल गया उसने नमो अरिहंताणं की स्थान पर आणु टाणु काय न जाणुशेठवचन परमाणु। उसे आणं आणं याद आ रहा था। उसने सोचा आणुटाणु कुछ पता नहीं जो शेठ ने कहा वही वचन प्रमाण हैं। वही मंत्र हैं। इतने स्मरण मात्र से उसका कल्याण हो गया। मंत्रों में शब्द के साथ भावों का भी महत्त्व होता हैं और भावों के साथ परिणाम हेतु धैर्य भी आवश्यक हैं। प्रतिष्ठानपर पहुंचने तक धेर्य रखना होगा। कभी न कभी हम अपने द्वीप को पा सकते हैं। प्रतिष्ठान में प्रतिष्ठा पा सकते हैं। साधना के कबूतर से हमें अपनी यात्रा की दुरी का अनुभव हो सकता हैं। प्रभु सत्ता का सीधा स्पर्श द्वीप से जुडा हुआ हैं। अनंत की यात्रा में आस्था के साथ आगे बढते रहना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में इसे स्पष्ट करते हुए कहा है,जीव संसार में जन्म मृत्यु के वेग में बहता चला जा रहा हैं। इस वेग में बचने के लिए उसे धर्मरुप द्वीप प्राप्त हो जाए तो उसे वह द्वीप गतिरुप, उत्तमशरणभूत और प्रतिष्ठानरुप परिणमित होता है। गौतमस्वामी के द्वारा केशीश्रमण को दिया हुआ यह कथन इसी सूत्र की व्याख्या हैं। बहुत प्रेम से समझाते हुए उन्होंने कहा हैं कि उछलते कूदते विशाल जल प्रवाह में एक महाद्वीप हैं। जल प्रवाह की गति उस महाद्वीप में कभी नहीं हो सकती है। महाउदगवेगस्स, गई तत्थ ण विज्जइ उस विशाल महाद्वीप में महावेगवान जलप्रवाह का कभी प्रवेश नहीं हो सकता। । द्वीप तक पहुंचने के पाँच प्रयास साधना में बताए हैं। १)अज्झथिए अर्थात् सर्व प्रथम अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिए। २) चिंतिए अध्यवसाय के बाद चिंतन आता हैं । जो अध्यवसाय चिंतन में परिणमित होता हैं तभी वह आगे का क्रम बनाता है और 202

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