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अप्पाणं वोसिरामि शब्द का प्रयोग हुआ है। सामायिक सूत्र में आप इर्यापथिकीका पाठ बोलते है। यह आलोचना का सूत्र हैं। आलोचना अर्थात् आत्मा के लोचन अर्थात् भीतर की आँखों से देखना। असातना के जो प्रकार बताए हैं अभिहया, वत्तिया आदि जो भी दोष हैं वे किस के प्रति हैं ? हमारे प्रति या अन्य किसी के प्रति? आज दिनतक हमारी धारणा अन्य के प्रति लगे दोषों की आलोचना की रही हैं। कहते हैं हम एगिंदिया...पंचिंदिया... प्रस्तुत कथित दोष पंचिंदिया में कैसे उपयुक्त होते हैं।
गहराई से सोचनेपर ये दोष अन्यों के प्रति तो हैं परंतु स्वयं के प्रति भी हैं। हमने सूत्र के माध्यम से केवल अन्यों की असातना के बारें में ही सोचा हैं। आचारांग का यह सूत्र हमें स्वयं के प्रति किए जानेवाले दोषों के प्रति जाग्रत करता हैं। जैसे अभिहया अर्थात् जो सामने से आया हो अभिमुख हुआ हो उसे रोकना, बाधा पहुंचाना आदि आदि। ऐसा कईबार होता है कि आत्मा की अनुकूल और प्रतिकूल दोनों स्थिति एकसाथ आती हैं। आत्मा की अनुकूलता में स्वयं का लाभ होता है और प्रतिकूलता में अन्य का इसे सरल तरीके से समझना हो तो भरतचक्रवर्ती की घटनाओं का स्मरण करें। एकबार उन्हें तीन सुखदायी संदेश प्राप्त हुए थे। अंत:पुर से पुत्ररत्न उत्पन्न होने का संदेश, आयुधशाला में चक्ररत्न का संदेश और आयोध्यापुरी में केवलि भगवान ऋषभदेव के आगमन का संदेश। भगवान का आगमन आत्मलाभ और आत्महित से संबंधित संदेश था। आत्महित के बारे में सोचा इसलिए अन्य संदेशों को गौण कर आप उद्यान में गए। यदि आप परिवार को महत्त्व देते तो प्रथम पुत्रजन्मोत्सव मनाते है। यदि चक्रवर्तीपद को महत्त्व देते तो आयुधशाला में जाते परंतु आत्महित के प्रति संदेश देने आए भगवान को महत्त्वपूर्ण मानकर वे भगवान आदिनाथ के समवसरण में पधारे। श्रीमद्जीने एक काव्य में बहुत अच्छा कहा है, परवस्तुमां नहीं मुंझवो एनी दया मुझने रही। ऐत्यागवा सिद्धांत के पश्चात् दुःख ते सुख नहीं। बाद में दुःखदायी प्राथमिक सुखों को सुख नहीं मानना चाहिए। यह विषय बहुत गहन हैं। . सूरदास का वह कथन आपने पढा होगा,
मेरा मन अनत (अन्यत्र) कहाँ सुख पावे ?
जैसे उडी जहाज को पंखी फिर जहाज पे आवे... यहाँ बात हैं द्वीप और जहाज की। यहाँ कथन हैं नमोत्थुणं और परम पाप्ति का। जब तक परम प्राप्त नहीं होता तब तक नमोत्थुणं से मन हट नहीं सकता। जब तक द्वीप न मिले जहाज का चलते रहना जरुरी हैं। अमेरिका की खोज करनेवाले कोलंबस ने अपनी यात्रा का प्रारंभ किया था। १५/२० दिन होने के बाद भी जब यात्रा चलती रही और परिस्थिति विकट होती गई। खाने के पदार्थ और पानी समाप्त होने की स्थिति पे आ गए। साथी लोग भी थक गए। चारों ओर सिर्फ पानी ही पानी दिख रहा था। सबको लगता था कि अब धरती आवे तो अच्छा हैं। द्वीप मिले तो काम होगा। जहाज यात्री अपने साथ कबूतर ले जाते है। जब ऐसी विकट स्थिति लगे तब वे सुबह सुबह कबूतरों को छोड देते हैं। यदि नजदीक में कहीं द्वीप न हो तो कबूतर शाम को वापस लौट आते हैं। कोलंबस ने वैसा ही किया। कोलंबस के कबूतर भी शाम को वापस लौट आए। दो-चार दिन के प्रयास के बाद कोलंबस ने कहा कि आज हम
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