Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

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Page 201
________________ वह इन सब के बारे मे सोचेगा ? एक बात ध्यान में रखना डूबते हुए व्यक्ति को जब बचने की व्यवस्था मिलती हैं तब वह स्थान की व्यवस्था के बारे में नहीं सोचता हैं। इसलिए कहा हैं - जहा से दीवे असंदीणे, एवं से भवइ सरणं महामुणी। ___ इस पद को पाँच विभागों में बाँटा जाता है - १. द्वीप, २. त्राण, ३. शरण, ४. गति और ५. प्रतिष्ठान। एक तरह से परमात्मा हमें इन पाँच स्वरुप में पंचपरमेष्ठि रुप में प्राप्त होते है। द्वीप का दूर से दिखाइ देना द्वीप को वास्तव्य है। परमात्मा भी हमारे लिए दूर है फिर भी द्वीप की तरह हमारा रक्षण करते हैं। भक्तामर स्तोत्र में इस तथ्य को अच्छी तरह समझाया है। वह पंक्ति आपको याद है - दूरे सहस्त्र किरणः कुरुते प्रभवः, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि। दूर रहे हुए सूर्य की किरणे पकडी नहीं जाती उठाकर डिब्बी में डाली नहीं जाती। फिर भी दूर रहा हुआ सूर्य किरणों के माध्यम से यत्र-तत्र-सर्वत्र अपने अस्तित्त्व का बोध कराता है। सूर्य उगते ही, किरण आते ही कमल खिलने लगता है। उसीतरह परमात्मा चाहे कितने ही दूर हो हमारे आत्मकमल को खिला देते है। दूर रहा हुआ द्वीप खोये हुए यात्री को दूर से ही दर्शन देता है, मार्गदर्शन करता है। अपनी ओर आमंत्रित करता है। आरक्षित करता है। उसी तरह परमात्मा अनादिकाल से भटके हुए, खोए हुए साधक को श्रुतदर्शन देते है। मार्गदर्शन करते है। मोक्षमार्ग की ओर आमंत्रित करते है। शासन में शरण देते है। पानी में रहते हुए भी द्वीप पानी की बाधाओं से रहित असंदीन होता है। आचारांग में कहा है, जहा से दीवे असंदीणे अर्थात् द्वीप जैसे रहता है पानी में ही परंतु भीतर पानी से संबंधित कोई भी समस्या नहीं होती है उसीतरह देव,गुरु,धर्म संसाररुप सागर के रुप में द्वीप की तरह होते है। जो स्वयं के आत्मा की असातना नहीं करते है और अन्य की भी असातना नहीं करते। यह कथन बहुत बडी बात करता हैं। द्वीप में जैसे कोई कभी भी कहीं से भी आ सकता है उसीतरह संसार में भी सभी जीव कहीं से भी आते रहते है। यहाँ स्वयं की स्वयं कैसे असातना कर सकता है। विचित्र नहीं लगता आपको यह कथन ? अन्य को कोई कभी भी बाधा पहुंचा सकता हैं परंतु स्वयं को कैसे पीडित कर सकता है? शास्त्रकार ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए आगे अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व को असंदीनद्वीप की तरह शरण देना कहा है। द्वीप भी दो तरह के होते हैं संदीन और असंदीन। संदीन द्वीप वह हैं जो कभी पानी में डूबा हुआ होता हैं कभी नही। असंदीन द्वीप हैं जो कभी पानी में नहीं डूबता हैं। आचारांग सूत्र के छठे अध्ययन के तीसरे और पाँचवे दो उद्देशकों में असंदीन द्वीप की चर्चा हैं। असातना के यहाँ दो प्रकार बताएं हैं। स्वयं की असातना और अन्य की असातना। अन्य को मन-वचनकाया से असातना पहुंचा सकना समझ में आता हैं परंतु जीव स्वयं की असातना कैसे कर सकता हैं? आप में से कोई इस प्रश्न का उत्तर दे सकता हैं? इसका उत्तर नहीं दे सकना, इस उत्तर के प्रति मौन रहना या इसके उपेक्षा करना स्वयं के प्रति अपराध हैं। अन्य किसी के भी बारे में हम अज्ञात रह सकते हैं परंतु स्वयं के प्रति अबोध रहना अन्याय है। इस उत्तर के प्रति की हमारी खामोशी भी हमारी अपनी असातना है। क्या कुछ समय दिया जाए तो इसका उत्तर संभव हैं ? इतनी बडी सभा में आप में से कोई कुछ समय के बाद भी इसका उत्तर देने का सामर्थ्य नहीं 199

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