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धर्मचक्रवर्ती धर्म को सानुबंधसत्ता कहते हैं। जो परंपरा से मोक्ष का परिणाम प्रगट करती है। किसी भी सत्ता या प्रवृत्ति का फल अनिवार्य होता है और वह उसके स्वभावपर निर्भर होता है। जैसे ईख, आम और केला ये तीन फल हैं। तीनों का स्वभाव अलगअलग हैं। ईख को फल नहीं आता। आम बार बार फलता हैं और केलेको एकबार फल आता है। धर्म अनुबंध के द्वारा बार बार फल देता है। हम तो पानी जैसे हैं। पानी को जिस बरतन में डालते हैं। वह उस आकार का हो जाता है। उसमे शक्कर डालो तो मीठा हो जाता हैं और नमक डालो तो नमकीन हो जाता हैं। हमारा जीवन रुपरंग के साथ पानी की तरह एकरुप हो जाता है। आत्मा शाश्वत है परंतु जीवन की पर्यायें बदलती रहती हैं।
धर्मरथ का उत्तरदायित्त्वधर्मचक्रवर्ती के उपर डालकर हम आगे बढ़ रहे हैं। धर्म संपदा का यह अंतिम पद हमें नई यात्रा के लिए अग्रसर करता है और वह है दिवोताणं सरणगइपइट्ठाणं। कल हम अपने रक्षण और शरण के नये आयाम की ओर आगे बढ़ते हुए धर्मचक्र और धर्मचक्रवर्ती के चरणों में नमस्कार करते हैं।
नमोत्युणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं नमोत्युणं धम्मवरचाउरतचक्कवठ्ठीणं नमोत्थुणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं
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