Book Title: Namotthunam Ek Divya Sadhna
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Choradiya Charitable Trust

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ नमोत्थुणं अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं - वियट्टछउन्माणं जो हमें जानते हैं देखते स्वयं के जैसे मानते हैं वे अप्रतिहत ज्ञानदर्शन के धारक हैं। जो हमें स्वयं के जैसा जानते और मानते हैं वे अप्रतिहत ज्ञानदर्शन के धारक हैं। हम उन्हें जाने या न जाने पर वे हमें हमेशा जानते हैं वे अप्रतिहत ज्ञानदर्शन के धारक हैं। - ज्ञानदर्शन के धारक इस शब्द के पूर्व अप्रतिहतवर शब्द का प्रयोग है। अप्रतिहत अर्थात् शाश्वत, चिरंतन, त्रिकाल से अबाधित। ऐसा ज्ञान है केवलज्ञान। केवलज्ञान अर्थात् एकमात्र, अद्वितीय, अखंड, शाश्वत, परिपूर्ण आदि। केवलज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान। जिसकी बरोबरी में कोई अन्य ज्ञान नहीं होता है। वह अपने आप में परिपूर्ण है। उसमें कोई अधूरापन नहीं हैं। केवलज्ञानियों के केवलज्ञान में कोई अंतर या उतारचढाव नहीं होता है। सर्व केवलज्ञानी एकसमान होते हैं। जाति, संप्रदाय, काल, देश आदि से भी अबाधित होता है। अष्टापद पर्वतपर तप करनेवाले १५०० तापसों की तपश्चर्या में आपसी तरतमता थी परंतु परमगुरु गौतमस्वामी के द्वारा दीक्षित होकर समवसरण तक पहुंचतेही केवलज्ञान हो जानेपर उनके ज्ञान में कोई अंतर नहीं था। सर्व केवली समान ज्ञान से परिपूर्ण थे। जो जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं तीन भव पूर्व तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन हुआ हो ऐसे प्रभु निरंतर आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और आत्मआनंद की अनुभूति में लीन होते हैं। ज्ञान की अखंड धारा में संपूर्ण विश्व लयबद्ध होकर झलकता रहता है। उनके भाव का प्रभाव अचिंत्य होता है। कभी सोचो तो सही अनंत अनंत तीर्थंकर हो गए। सभी तीर्थंकरों ने हमारे लिए शुभ चिंतन किया। हमें परम सुखी बनाने का सर्वोत्कृष्टभाव बहाया। वे पवित्र संवेदन, निर्मल उर्जा उनकी वह विल्लसित विद्युत हमारी आत्मा के विकास के हेतु और कारण बन गए। संसार में जरा सी दहशत हो जाए कि किसी ने हमारे बारे में अशुभ चिंतन किया है हम उन्हें कितना दोषित मानते है ? अनादिकाल से अनंत अनंत तीर्थंकर हो गए सभी ने हमारे लिए शुभ भावों का चिंतन किया। इन भावों को हमने जाना या नहीं जाना परंतु वह धारा अखंड बहती रही। परमतत्त्व के साथ का हमारा यह संबंध असामान्य है। व्यवहार राशी में आकर क्या किया था हमने? सीधी सामायिक थोडी ही कीथी। फिर भी आत्मविकास का प्रारंभ हो चुका। यह तो बहुत बडे भाव की बात है। परंतु छोटे छोटे जीवों के शुभ और प्रबल भाव कितना काम कर लेते हैं। मेघमुनि की आत्मा ने हाथी के भव में खरगोश की रक्षा की थी। खरगोश ने क्या किया था हाथी का? सामान्यत: हम यही कहते हैं कि खरगोश ने हाथी की शरण ली थी। हाथी को उसने देना क्या था? क्या था उसके पास ? इतिहास प्रश्न देता है, एहसास उत्तर देता हैं। दावानल में हाथी की शरण लेकर पाँव के नीचे से सरकते हुए खरगोश ने जाते जाते हाथी भाई का आभार माना। हाथी ने ढाई दिन तक खरगोश को शरण में रखने हेतु पाँव को 204

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256